हर वर्ष की तरह ये वर्ष भी उतना ही बुरा और अच्छा था जितना कोई भी हो सकता है. बस आख़िरी हफ़्ते में ये हुआ कि मैंने कराची के सबसे अच्छे सिनेमाघर में 'पीके' देख ली.
हर दर्शक के पास पीके देखने की कोई न कोई वजह है. कोई बस आमिर ख़ान का फ़ैन है, किसी ने पोस्टर पर राजकुमार हीरानी का नाम देख लिया और उसे 'थ्री ईडियट्स' याद आ गई. हो सकता है किसी ने अनुष्का शर्मा के चक्कर में टिकट ख़रीद लिया हो.
ये भी मुमकिन है कि किसी ने बस इसलिए पीके देखने का फ़ैसला किया हो कि बहुत से हिन्दू उसे नापसंद करते हैं और जिस फ़िल्म को हिन्दू पसंद नहीं करते, उसमें यक़ीनन कोई अच्छी चीज़ ही होगी.
अगले सीन का इंतज़ार

बहुत पहले ये लतीफ़ा सुना था कि एक साहब फ़िल्म देख रहे थे, एक सीन में हीरोइन रेल की पटरी के नज़दीक बने तालाब में नहाने के लिए जैसे ही चोली उतारने लगती है, अचानक से एक ट्रेन सामने से गुज़र जाती है और फिर सीन ही बदल जाता है. इसके बाद उन साहब ने फ़िल्म का हर शो देखना शुरू कर दिया.
सातवीं या आठवीं दफ़ा गेटकीपर ने पूछ ही लिया, ''साहब ख़ैर तो है, क्या फ़िल्म बहुत पसंद आ गई.''
उन साहब ने कहा, ''नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं, मैं तो इस उम्मीद पर हर शो देख रहा हूँ कि कभी तो ट्रेन लेट होगी.''
सीन में चालाकी

अपने मुँह से ख़ैर कोई नहीं बताएगा, मगर हज़ारों ने इसलिए सिनेमाघरों का रुख़ किया होगा कि देखें तो सही, आमिर ख़ान का ट्रांज़िस्टर कब इधर-उधर होता है. मगर डायरेक्टर हीरानी ने ट्रांज़िस्टर वाले सीन में भी चालाकी दिखा दी और ऐन वक़्त पर धूल उठा दी. और सिनेमाघर में एक साथ कई आवाज़ें सुनाई दीं, 'अरे यार मुझे पहले ही पता था'.
इसलिए जिन दर्शकों ने अब तक फ़िल्म नहीं देखी उन्हें मेरा मशविरा है कि ट्रांज़िस्टर वाले सीन के चक्कर में पैसे ज़ाया न करें.
अगर पीके देखनी ही है तो उसके मैसेज पर ध्यान दें. यानी असली भगवान या ख़ुदा की लोकप्रियता को कैश कराने के लिए जिन पुरोहितों और मौलवियों ने फ्रंट कंपनियाँ खोलकर 'यहाँ असली ख़ुदा और भगवान मिलता है' का बोर्ड लगा रखा है, उनसे बचें और अपना ख़ुदा और भगवान ख़ुद तलाश करें.
फ़िल्म का संदेश
मगर क्या वाक़ई पीके अपने दर्शकों तक ये संदेश पहुँचाने में कामयाब रही?
जब शो ख़त्म हुआ तो मैंने कई तमाशाइयों को कहते सुना, अरे यार क्या वाट लगाई है इन्होंने हिन्दुओं की...फ़ुल तफ़रीह ली है....ईमान से...मगर हमारा मौलवी भी तो यही कर रहा है...अरे आहिस्ता बोल.
जो लोग ऐसी फ़िल्में बना रहे हैं उन्हें मेरा सलाम. झूठ की कालिख, सच्चाई की एक आधी किरण नहीं छीज सकती, लगातार कई किरणें मुसलसल बिखेरने की ज़रूरत है.
अंधेरा हटाने के लिए सबसे ज़्यादा मेहनत, झुटपुटे को करनी पड़ती है. उसके बाद सूरज का निकलना आसान हो जाता है.
ऐसी फ़िल्म पाकिस्तान में बनाने का अभी किसी का हौसला नहीं और कारण आप जानते ही हैं.
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