
पेशावर घटना के बाद पाकिस्तान और तालिबान के रिश्तों पर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है.
सवाल है कि पाकिस्तान अब उस तालिबान से किस तरह निपटेगा जिसके साथ ताल्लुक़ बनाए रखने के लिए उसने सारी दुनिया से बैर मोल लिया हुआ था.
तो दूसरी ओर अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार से नए माहौल में कैसे संबंध होंगे?
बीबीसी ने अपने पाठकों के लिए तालिबान मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई से बात की.

क्या फ़ौज तालिबान का पूरी तरह से सफ़ाया चाहती है?
ऊपरी तौर पर यही नज़र आ रहा है. आर्मी चीफ़ भी यही कह रहे हैं कि सबके ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी.
सुरक्षा बलों की कार्रवाई ख़ासतौर से उत्तरी वज़ीरिस्तान और ख़ैबर एजेंसी में केंद्रित रहेगी. इसके अलावा क़बीलाई इलाक़ों में भी कार्रवाई हो रही है.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का दावा है कि उसके लड़ाके जीत चुके हैं और एक बार अमरीकी और नैटो सैनिक चले जाएगें तो वे वहां क़ाबिज़ हो जाएंगे.

क्या पाकिस्तान अफ़ग़ान तालिबान से भी रिश्ता ख़त्म कर देगा?
पेशावर की घटना के बाद से ऐसा ही लग रहा है कि पाकिस्तानी फ़ौज जिस रणनीतिक फ़ायदे के लिए तालिबान का साथ दे रही थी उसे वह छोड़ देगी.
और अगर ऐसा हुआ तो ये बहुत बड़ा फ़ैसला होगा.
पाकिस्तान का रिश्ता अफ़ग़ान तालिबान से और उसका हिस्सा रहे हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ ख़त्म होना बड़ी बात होगी.
पाकिस्तान की अब भी ये ख़्वाहिश होगी कि अफ़ग़ान तालिबान और अशरफ ग़नी की आपस में बातचीत हो जाए. कोई सुलह हो जाए.

पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि तालिबान का पूरी तरह ख़ात्मा हो. हां, तालिबान को कितनी फ़तह हासिल होगी, और कहां होगी ये बहस का विषय है.
कुछ इलाक़ों में तो तालिबान मज़बूत है लेकिन क़ाधार या काबुल पर क़ब्ज़ा करना तालिबान के लिए आसान नहीं होगा.
अफ़ग़ान तालिबान या गनी सरकार?

अगर सूरते हाल ऐसी बनती है कि पुराने साथी तालिबान और नई अफ़ग़ान सरकार में से किसी एक को चुनना पड़े तो ये बहुत मुश्किल फ़ैसला होगा.
तालिबान अफ़ग़ान सरकार का हिस्सा बनना नहीं चाहेंगे बल्कि वे चाहेंगे कि उसकी अपनी सरकार बने. यह मामला पेचीदा है और इसका आसान हल नहीं है.
(पेशावर से वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई से बात की बीबीसी संवाददाता अविनाश दत्त ने.)
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