पाकिस्तान धीरे-धीरे पेशावर के दुख का बोझ उठाए खड़ा होने की कोशिश कर रहा है.
जिन लोगों में 16 दिसंबर से पहले एक सवाल उठाने की भी हिम्मत नहीं थी, अब एक साथ कई सवाल उठा रहे हैं.
ये साँप किसने पाला, दूध किसने पिलाया, जवान किसने किया और ये कैसे सोच लिया कि बस उन्हें डसेगा जिन्हें सपेरा डसवाना चाहे.
पहली दफ़ा, एक आम आदमी जिसका किसी सियासी गुट से लेना-देना नहीं, इस्लामाबाद की लाल मस्जिद के सामने खड़ा नारे लगा रहा है कि इस मस्जिद को 'ज़हरीलों' से पाक करो.
आम आदमी के सवाल

लोग सवाल उठा रहे हैं कि स्कूली बच्चों को जो धार्मिक पुस्तकें पिलाई जा रही हैं वो उन्हें अच्छा इंसान बनाने, दूसरों की मदद करना और हर मनुष्य को बराबरी की दृष्टि से देखना सिखा रही हैं या उनमें नफ़रत और ज़हर भर रही हैं.
पहली दफ़ा सरकार मान रही है कि चरमपंथी अच्छा-बुरा नहीं होता बस चरमपंथी होता है.
पहली दफ़ा, पाकिस्तान में मानवाधिकारों के वकील इस बाद पर बहुत ज़्यादा ज़ोर नहीं दे रहे हैं कि किसी को भी फांसी नहीं मिलनी चाहिए.
पहली दफ़ा लग रहा है कि राजा, प्रजा और सेना एक तरह से सोच रहे हैं.
कायाकल्प या निरा ग़ुस्सा

लेकिन ये वाक़ई कायाकल्प है या निरा ग़ुस्सा या फिर बासी कढ़ी में एक और उबाल. सब अगले दो-तीन महीनों में दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा.
भारतीय संसद में दो मिनट की ख़ामोशी, देश के सब स्कूलों में बच्चों की बच्चों के लिए दुआएँ, बॉलीवुड का नीचे से ऊपर तक थर्रा जाना, हजा़रों ट्वीट्स, लाखों ईमेलें, ये सब एक आम पाकिस्तानी नागरिक की आँखों से ओझल नहीं.
बस थोड़ी सी मदद और चाहिए. सांप्रदायिक दंगे भड़काने वाले और धर्म के नाम पर ज़हर उगलने वाले, भले भारतीय हों या पाकिस्तानी, ये सब ज़हरीले एक-दूसरे के भाई हैं.
ये बात समझे बग़ैर बर्बादी और मौत के उन दुकानदारों का बिस्तर गोल नहीं हो सकता, जिन्हें पाँव धरने की जगह दी नहीं और उन्होंने टांगें पसारने में एक सेकेंड नहीं लगाया.
'ज़हरीले' लोगों की पहचान

मेरा छह वर्ष का बेटा राफ़े टीवी पर बस कार्टून देखता है, अख़बार वो पढ़ नहीं सकता और रेडियो घर पर है ही नहीं.
कल उसने स्कूल की कॉपी का एक पन्ना फाड़ा और उस पर एक चित्र बनाकर बोला, "बाबा ये देखिए, एक बच्चा सामने खड़ा है, दो आदमी मुँह पर नक़ाब बांधे, बंदूक़ ताने खड़े हैं. बच्चे के दिल में से ख़ून निकल रहा है."
मैंने पूछा, ये क्या है? कहने लगा, बाबा ये गंदे लोग हैं और इस बच्चे को मार रहे हैं.

मैंने पूछा, मगर बंदूक़धारियों ने मुँह पर नक़ाब क्यों बांध रखा है? कहने लगा, ताकि लोग इन्हें पहचान न जाएँ.
जो बात मेरे छह साला राफ़े के समझ में आ गई, वो साठ वर्ष के बुद्धिमानों की बुद्धि में भी कभी आएगी!
बीबीसी हिन्दी
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