Monday, 26 January 2015

त्र्यंबकेश्वर में इसीलिए लगता है कुंभमेला

गोदावरी नदी के तट पवित्र माने जाते हैं फिर भी कुंभ मेला त्र्यंबकेश्वर में ही क्यों मनाया जाता है? सिंहस्थ के संबंधित सभी धार्मिक तीर्थ विधी त्र्यंबकेश्वर में हीं क्यो संपन्न किये जाते हैं? ये कुछ ऐसे सवाल है जो किसी भी श्रद्धालु के मन को झकझोर सकते हैं। इसके पीछे एक ही कारण है और वो है...
सिंहस्थे तु समायाते नचस्तीभीनी देवता।
तिर्थ राजे कुशावर्ते स्नानुमायांति यत्नत:।।
त्र्यंबकंक्षेम मेवात: तु विशिष्यते।
यत्र गोदा सभुदभूता सर्व पाप प्रणाशिनी।।
यानी पुराणों में वचन है कि गोदावरी के उद्गम स्थान को विशेष महत्व दिया गया है । गौतमी गंगा को गोदा की संज्ञा त्र्यंबकेश्वर कुशावर्त तीर्थस्थान पर प्राप्त हुई थी। गोदा यानि 'गौतमस्य' गां जीवन ददाति इति गोदा।
गौतम ऋषि की गोहत्या पातक से मुक्ति एवं उनकी गाय को जीवनदान मिला था । गौतम ऋषि ने पवित्र कुशा (दर्भ) से गंगा की धारा को रोककर इस स्थानपर किया था । इसलिए इस स्थान को कुशावर्त कहा जाता है और इसी स्थान से गौतमी गंगा को 'गोदा' से संबोधित किया जाने लगा।
द्वादश ज्योर्तिलिंगों में त्र्यंबकेश्वर का स्थान महत्वपूर्ण है । कई महंतों के यहापर अखाड़े हैं । नग्न साधुओं के स्नान की परंपरा आज भी कुशावर्त में जारी है। सिंहस्थ कालखंड में मूल गोदावरी के स्थान का महत्व लगातार सभी शास्त्रों एवं पुराणों में बार-बार समझाया गया है।
यही कारण है कि सिंहस्थ पर्व में मूल गोदावरी का अनादि जन्मपीठ श्री क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर स्थान पर हजारों की संख्या मे साधु, महंत एवं महामण्डलेश्वर आदि अपने अनुयाइयों एवं छात्रों के साथ सच्चे दिल से बड़े जोश जश्न से तीर्थराज कुशावर्त में स्नान करते हैं। लाखों की तादाद में भक्तगण ,यात्री, जिज्ञासु एवं वैज्ञानिक स्नान, दान, मुंडन आदि धार्मिक विधियों में शामिल होते है।
गोदावरी नदी के तटों की अपेक्षा मुळ गोदावरी का महत्व विशिष्ट है। इस विशेषता के लिए शास्त्रवाचन है।
मुळ मध्यावसानेशु गोदालभ्य कलीयुगे। अर्थात प्रारंभ में गोदावरी के तीन स्थानों का महत्व अधिक है। प्रथम याने मूळ त्र्यंबकेश्वर, मध्य में नांदेड एवं अंतिम राजमहेन्द्री (आंध्र प्रदेश) यह वह तीन स्थान है।
राज महेन्द्री में गोदावरी सात मुखों से सागर को मिलती है, परंतु कुंभ मेला त्र्यंबकेश्वर में ही होता है नासिक में नहीं, क्‍योंकि गोदावरी का मुल त्र्यंबकेश्वर है । इस संदर्भ में स्कंद पुराण से एक और प्रमाण है ।
मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु रामचंद्र वनवास काल में नाशिक स्थित पंचवटी मे थे। यहां पर उन्हें पिता दशरथजी के देहान्त का समाचार मिला। पितरों की मुक्ति के हेतु से महर्षि कश्यपजी ने प्रभु रामचंद्र के श्रध्दादिक कर्म त्र्यंबकेश्वर में कुशावर्त तीर्थ पर ही किये थे। संस्कृत श्लोक इस बात की पुष्टि करते हैं।
राम राम महाबाहो मदवाश्यम कुरू यत्नत:।
सिंहस्थते सुरगुरी दुर्लेभम् गौतमी जलम।
यत्रकुभापि राजेंद्र कुशावर्त विशेषत:।
तव भाग्येन निकट वर्तने ब्रम्हभुधर।
सिंहस्योपि समायातस्त ग्त्वा सुखी भव।
यावद् भ्योंति सिंहस्थस्तावनिष्ट ममाशया।
सिंहस्थे तु समावते राम कश्यप संभुत: ।
त्र्यंबकक्षेत्रमागाय तीर्थायात्रा चकार ।
इन कारणों से गोदावरी नदी का उद्गम स्थान श्रीक्षेत्र त्र्यंबकेश्वर सिंहस्थ निमित्त यात्रा, तीर्थविधि, मंडल श्राध्द आदि के लिये प्रशस्त एवं शास्त्र सम्मत है। जिनके पिता जीवित या मृत है, वे सभी तीर्थ विधि के अधिकारी है।
केवल श्राद्ध विधि का अधिकार जिनके पिता मृत है उन्हीं को है। परिवार में मंगलादि कर्म (विवाह, उपनयन) संपन्न होने पर भी या भार्या गर्भिणी होने पर भी सिंहस्थ विधि सभी कर सकते हैं।
सिंहस्थ विधि के लिए किसी भी विशेष समय की आवश्यकता नहीं है। गुरूशुक्रास्त का मलमास का (अधिक मास) एवं जन्मक्षत्रादि का दोष नही है।
कुशावर्त तीर्थ पर सभी संकल्पपूर्व विधि संपन्न करने के पश्चात गंगा गोदावरी की प्रार्थना करे और फिर स्नान करे। स्नान के पश्चात यथाशक्ति गाय, तील, घी, वस्त्र, अनाज, गुड, नमक आदि का दान करना उचित है।

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