Tuesday, 23 February 2016

मानव जीवन की पराकाष्ठा धर्म : श्री आनंदमूर्ति

मानव जीवन की पराकाष्ठा धर्म
मनुष्य की पैदाइश कई लाख साल पहले हुई है। तब से ही मनुष्य के मन में सुख पाने की अभिलाषा रही है। आज भी है और सदैव रहेगी। इस सुख प्राप्ति की चाह से प्रेरित होकर मनुष्य धर्म-जीवन में आए। यह चाह है मात्र मनुष्य में, अन्य जीव-जंतुओं में नहीं। जो जीव-जंतु मनुष्य के निकट रहते हैं तथा जिनका मनुष्य के साथ कुछ हद तक समझौता हो गया है, उनमें भी कुछ हद तक ही इस तरह की चाह देखी जा सकती है। यह चाह मनुष्य में है, इसीलिए उसका नाम मनुष्य है। मनुष्य माने जिनमें मन की प्रधानता है। इस सुख को पाने की विशेष चेष्टा से ही धर्म की उत्पत्ति है।
मनुष्यों ने देखा कि वह जो कुछ पाते हैं, वह तो बहुत थोड़ा है। उन्हें इससे अधिक चाहिए। फिर जब वह भी मिला तो फिर देखते हैं कि वह भी थोड़ा प्रतीत होता है। वे फिर प्रयास करते हैं कि और चाहिए। उन्होंने सोचा कि थोड़ी सी कुछ चीज मिल जाएगी तो सुख की प्राप्ति होगी। उसके बाद उन्हें फिर चाह नहीं रहेगी। किन्तु देखते हैं कि इसमें भी उनकी चाह नहीं मिटी। और चाहिए। और चाहिए, अल्प से संतोष नहीं हुआ। मनुष्य ने अंतत: देखा कि उसे अनंत चाहिए और जिसका अंत है, जिसकी सीमाएं हैं, उससे वह सुख नहीं मिला। फिर मनुष्य खोज में लग गया। तब उसे पता लगा कि सिर्फ एक ही सत्ता है, जो अनंत है। और वह हैं परमपुरुष। मनुष्य को परमपुरुष के अलावा और कोई वस्तु तृप्ति नहीं दे सकती। इसी सुख प्राप्ति की चाह से धर्म-जीवन का प्रारम्भ हुआ।
यह जो परमपुरुष को पाने का प्रयास है और यह जो धर्मसाधना है, वह सबको करनी चाहिए। इसे करना ही मनुष्य की पहचान है। इसलिए मनुष्य को यदि सही इंसान बनना है, मनुष्य बनना है तो धर्म-जीवन में उन्हें आना होगा। मानव मन की यही विशेषता है कि अल्प से उसे संतोष नहीं मिलता है, वे अनंत को ही चाहते हैं। सुख जहां अनंत तक पहुंच गया है, उस सुख को आनंद कहते हैं। अर्थात मनुष्य वास्तव में सुख नहीं चाहता है, वह चाहता है आनंद। सुख प्राप्ति की चाह से प्रेरित होकर वह अनंत की राह अपनाते हैं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो सुख और आनंद में अंतर प्रतीत होगा। जब अनुभूति की तरंगें मन के भीतर रह गईं, तब उसे कहेंगे सुख और जब तरंगें मन के भीतर ही नहीं, बल्कि बाहर भी आ गई हैं अर्थात् जब मनुष्य महसूस करते हैं कि सुख की तरंगें उनके अंदर भी हैं और दस दिशाओं में भी हैं, तो उसे कहेंगे आनंद। तुम लोग लौकिक जीवन में देखोगे कि लौकिक सुख में भी कभी-कभी सुख की तरंगें इतनी अधिक हो जाती हैं कि यह अनुभव होता है कि बाहर चारों ओर सुख की तरंगें उठ रही हैं। उस दशा में स्वयं को संभालना कठिन हो जाता है। अधिक सुख होने से आदमी चिल्ला पड़ता है, कूदने लगता है। कभी-कभी वह हंसता है, कभी-कभी वह रोने भी लगता है।

उसी प्रकार का सुख जब बराबर रहे तो उसे कहते हैं आनंद। अर्थात उनके मन का जो सुख है, वह मन के अंदर सीमित नहीं रह पाता। सुख सीमित रहता है, किन्तु कभी-कभी अधिक हो जाने से वह बाहर निकल पड़ता है। परमपुरुष हैं आनंद के आधार। इसलिए परमपुरुष की प्राप्ति से मनुष्य को आनंद मिलता है। तुम लोग धर्म-जीवन में हो, यही है मानव जीवन की पराकाष्ठा और मानव जीवन की पहचान। तुम लोग धर्म-जीवन में रहोगे और दूसरे धर्म-जीवन में नहीं रहेंगे, यह वांछनीय नहीं है। तुम्हारे इस प्रयास से कि सभी उस आनंद के रास्ते पर रहें, दुनिया में शांति की प्रतिष्ठा होती है। शांति की प्रतिष्ठा होने से मनुष्य भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन दोनों में आगे बढ़ते रहेंगे। लौकिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन दोनों में संतुलन रहने से ही सही प्रगति होगी। सिवाय इसके, किसी अन्य प्रकार से सही प्रगति नहीं हो सकती।
प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत

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