मशहूर और लोकप्रिय शायर निदा फाजली का गत 8 फरवरी को निधन हो गया। निदा ने काव्यात्मकता से समझौता किए बगैर लोकप्रिय कविताएं लिखीं। वे सरल भाषा में गंभीर और मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए जाने जाएंगे। प्रस्तुत है श्रद्धांजलि स्वरूप पवन कुमार का आलेख और निदा की कुछ गजलें।
निदा फाजली का दुनिया से अचानक यूं विदा हो जाना किसी एक अदद आदमी या किसी एक शायर का चले जाना भर नहीं है, उनका जाना हिन्दुस्तानी गंगा-जमुनी तहजीब के एक मजबूत पाये का अचानक गायब हो जाने जैसा है। निदा फाजली सिर्फ शायर नहीं थे, वे उन इंसानी जज्बातों की आवाज थे, जिनमें मुहब्बतें, बेचैनियां, बेदारियां, ख्वाहिशें, मां, बच्चे, बाप, कबूतर, राजा, महाराजा, दरवेश, फकीर, तीज-त्यौहार, शहर-गांव, कुदरत जैसे तमाम अनासिर शामिल थे। वैसे भी उर्दू में ‘निदा’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आवाज’। वाकई वे ऐसी मोतबर आवाज थे, जिसमें लोक जीवन गूंजता था।
निदा फाजली की शायरी का चेहरा अपने हमअसरों से शायद इसलिए अलहदा महसूस होता है कि वे जमानी लिहाज से जदीद नस्ल के फनकार हैं। निदा फाजली अदब व मुआशिरा के जिन्दा रिश्तों के शायर हैं। उनकी शायरी में घर भी है, घर के रिश्ते भी। उनकी शायरी जात में कायनात बयान करती सी लगती है।
जब वे कहते हैं, ‘जितनी बुरी कही जाती है, उतनी बुरी नहीं है दुनिया, बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया’ तो अहसास होता है कि सादा जुबानी में कितने सलीके से अहसासों को गढ़ा गया है। सादा जुबानी और गहरे म‘आनी, शायद यही निदा की पहचान थी। वे उर्दू की उस तरक्की पसंद रिवायत का हिस्सा थे, जिसने आजादी के बाद हिन्दुस्तान को नयी शिनाख्त देने की कोशिश की। शायरी के लिहाज से बात करें तो उनकी शायरी में कबीर का फकीराना अंदाज, सूरदास का विरह, मीर का इश्किया अंदाज और गालिब की गहराई एक साथ हमरक्स करती नजर आती है। बकौल निदा फाजली, उन्होंने सूरदास को सुनकर ही लिखने की प्रेरणा ली थी। दिलचस्प बात यह है कि निदा ने उसे ताउम्र निभाया भी। ‘...हर आदमी होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना...’ के बारे में वे खुद कहा करते थे, ‘उर्दू में दस-बीस की उपमा देने की रिवायत नहीं रही है। फिर भी मुझे सूर का ‘ऊधो मन न भये दस-बीस’ इतना अच्छा लगा कि इसे शामिल कर लिया।’
वे आम आदमी के शायर थे। बेशक उनकी गजलों-नज्मों से क्रांति और बगावत के सुर बुलन्द न होते हों, लेकिन उनकी शायरी में आम आदमी की आवाज बाजगश्त थी। हिन्दुस्तान पाकिस्तान के रिश्ते हो, साम्प्रदायिक समस्या हो, दुनिया पर आतंकी हमले हों, दादरी हो, असहिष्णुता हो या मदर टेरेसा हो या कि सद्दाम हुसैन, मलाला का आन्दोलन हो, हरेक विषय पर निदा ने बेबाकी से अपनी राय रखी। इस कारण कई बार वे आलोचनाओं और विरोध के शिकार हुए, लेकिन साफगोई उनकी शायरी की पहचान बनी रही। आम आदमी का दर्द उनकी शायरी में हमेशा गूंजता रहा। इबादत के लिए किसी रोते हुए बच्चे को हंसाने की उनकी तहजीब कइयों को रास नहीं आई, लेकिन वे डरे नहीं। उनकी शायरी फिरकापरस्त ताकतों को आंखें दिखाती थी।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रिश्तों पर उनकी यह नज्म हमेशा उम्मीदों की किरण दिखाती है-‘कराची एक मां है/बम्बई बिछड़ा हुआ बेटा है/ये रिश्ता प्यार का पाकीजा रिश्ता है जिसे/अब तक/कोई तोड़ पाया है/न कोई तोड़ सकता है’। इसी तरह गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर जब वे कहते हैं, ‘आओ/कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लायें/ मिट्टी को बादल में गूंधें/नये-नये आकार बनायें/दाढ़ी में चोटी लहराये/चोटी में दाढ़ी छुप जाये/किस में कितना कौन छुपा है/कौन बताये’ तो अहसास होता है कि एक संजीदा शायर किस तरीके से समाज को दिशा दे सकता है।
भाषाई विविधता को जिस सहज भाव से निदा ने अपनी शायरी में पल्लवित किया है, वह इस दौर में अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ता। शायद इसीलिए वे हिन्दी-उर्दू काव्य पे्रमियों के बीच समान रूप से लोकप्रिय थे। ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’, ‘मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार’ या ‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है’, ‘दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है, सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला’, ‘होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है, इश्क कीजे फिर समझिए जिन्दगी क्या चीज है’ जैसे गीत उनकी पहचान थे।
इन गीतों में यह विभेद करना नामुमकिन है कि कहां से उर्दू शुरू होती है, कहां हिन्दी खत्म होती है। वे खुद भी मानते थे कि शायरी की भाषा आम आदमी की होनी चाहिए। वे कई मौकों पर कहते भी थे कि भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर श्रोताओं में बगदाद के मुंतजर अल जैदी सी विरोध की शक्ति पैदा हो, जिसने जूते में गुस्सा भर दिया हो। निदा का वास्तविक नाम मुक्तदा हसन था। माता-पिता से शायरी विरासत में मिली। ग्वालियर में वे पले-बढ़े। हालांकि उनके मां-बाप तो पाकिस्तान चले गए, लेकिन वे यहीं रह गए। वर्ष 1964 में वे मुंबई आ गए। उन्होंने कुछ समय ‘ब्लिट्ज’ और ‘धर्मयुग’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए भी काम किया।
1969 में उनकी कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। कमाल अमरोही की फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ में उन्होंने ‘आई जंजीर की झंकार, खुदा खैर करे’ और ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है’ जैसे गीत लिख कर अपनी पहचान पुख्ता की। फिल्मी गीतों को लिखने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। ‘तू इस तरह से मेरी जिन्दगी में शामिल है’, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’, ‘होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है’ जैसे नायाब गीत उन्होंने लिखे। यूं तो निदा नज्मों के बड़े शायर थे, लेकिन उन्होंने गजलें और दोहे भी लिखे।
दोहों में तो उनके विचार और अभिव्यक्ति गजब ढाते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सिर्फ पद्य ही नहीं, उनका लिखा गद्य भी साहित्य की महत्वपूर्ण पूंजी है। उनकी आत्मकथा ‘दीवारों के बीच’ और ‘दीवारों के बाहर’ नस्त्री अदब की अहम तखलीकात मानी जाती हैं। इसी तरह ‘मुलाकातें’, ‘चेहरे और तमाशा मेरे आगे’ भी उनकी नस्त्री तखलीकात हैं। बीबीसी पर लिखे उनके लेख अदब के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण संदर्भ हैं। इन लेखों में उन्होंने असातिजा पर बेहतरीन प्रकाश डाला है। ये उनके गद्य लेखन का बेहतरीन उदाहरण है। इस किताब का एक-एक लफ्ज महत्वपूर्ण है। भाषा और जुमलों के मार्फत जीवन को प्रस्तुत करने में उनकी आत्मकथा साहित्य की पूंजी है। उन्होंने ‘जिन्दगी की तरफ’, ‘लफ्जों का पुल’, ‘मोर नाच’, ‘आंख और ख्वाब के दरमियां’, ‘खोया हुआ सा कुछ’ और ‘शहर मेरे साथ चल’ लोकप्रिय पुस्तकें लिखीं।
निदा फाजली की कुछ रचनाएं
1- कच्चे बखिए की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं
हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं
यूं हुआ दूरियां कम करने लगे थे दोनों
रोज चलने से तो रस्ते भी उखड़ जाते हैं
छांव में रख के ही पूजा करो ये मोम के बुत
धूप में अच्छे भले नक्श बिगड़ जाते हैं
भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बेख्याली में कई शहर उजड़ जाते हैं
2- बच्चा बोला देख कर, मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान।
अन्दर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्ठान
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर मांगे दान।
सब की पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।
सात समंदर पार से, कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फिर भेजें हथियार।
ऊपर से गुड़िया हंसे, अंदर पोलमपोल
गुड़िया से है प्यार तो, टांको को मत खोल।
मुझ जैसा इक आदमी, मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम।
3- हर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूं मुझी में है समंदर मेरा
किससे पूछूं कि कहां गुम हूं बरसों से
हर जगह ढूंढ़ता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आंखों से कहीं खो गया मंजर मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफूज है पत्थर मेरा
4- तन्हा तन्हा हम रो लेंगे महफिल महफिल गायेंगे
जब तक आंसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे
बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे
किन राहों से दूर है मंजिल कौन सा रस्ता आसां है
हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हो मुमकिन है
हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खायेंगे
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