उत्सवधर्मिता केवल उत्सव मनाना नहीं है। वही उत्सव पूर्ण कहा जा सकता है, जिसमें पवित्रता की भावना हो। उत्सव केवल व्यक्तिगत आनंद का नाम नहीं, उसकी सफलता इसमें है कि समाज को भी उससे कुछ सार्थक मिले। उत्सव व्यक्ति व समाज के अवसाद को दूर करता है
उत्सव दो प्रकार के होते हैं। एक, धन्यवाद का ज्ञापन करना अर्थात दिव्यता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना। दूसरा, बीते हुए को छोड़कर आगे इस भाव से बढ़ना कि जीवन सनातन है।
वास्तव में सही उत्सवधर्मिता में केवल उत्सव नहीं होता है। उत्सव के साथ पवित्रता जुड़ने पर ही उत्सव पूर्ण होता है। पूरा मन, शरीर और आत्मा आनंद से भर जाती है। यदि उत्सव से आपका उत्थान होता है, वह आपको एकजुट करता है और यदि उत्सव अपने गुजरे हुए दुखदायी समय से मुक्त कर दे और भविष्य के लिए आशा बंधा दे, तभी आप ग्लानि से मुक्त होते हैं। इस तरह का उत्सव वास्तव में सेवा होता है। महज खुशी और आत्मकेंद्रित होने के लिए उत्सव नहीं होते हैं, वरन् समाज को कुछ अभीष्ट व श्रेष्ठ मिल सके, तभी उत्सव की सार्थकता है।
जब उत्सव पवित्रता और प्रार्थना के ही रंग से घुला होता है, तब गहराई और महानता को प्राप्त करता है। यह मन के लिए केवल मनोरंजन या शरीर के लिए रोमांच नहीं है, बल्कि उत्सव आत्मा का पोषण है। उत्सव की शुरुआत मादक पदार्थों की बजाय करुणा के भाव के साथ की जाए तो यही उत्सव की सार्थकता होगी।
उत्सव आपका दृष्टिकोण है और जीवन को उत्सव बनाने के लिए आपको बहुत ज्यादा पैसा खर्च करने की आवश्यकता भी नहीं है। उत्सव हमेशा उत्साह और आनंद से आता है। जब आप अवसाद में होते हो, तब आपको उत्सव की बहुत आवश्यकता होती है। गुजरे पलों को भूल कर नवीनता की ओर आगे उत्साह से बढ़ना होता है। आपके पास जो भी है, उसे बांटना सीखें।
जीवन हमेशा अपनी श्रेष्ठता की ओर ही बढ़ता है। रास्ते में आपको कुछ जगह खराब मिलती है, लेकिन वह भी सब आपको और अधिक अच्छी राह की ओर ही बढ़ाता है। कठिनाइयां आपको गहराई प्रदान करती हैं और आनंद आपका अंदर से प्रसार करता है। जो चतुर हैं, वे गुजरे समय को अपना भाग्य मानते हैं और वर्तमान में प्रसन्न रहते हुए भविष्य को अपने अनुसार चलाते हैं, जबकि मूर्ख लोग गुजरे पल की शिकायत करते हैं, सोचते हैं कि भविष्य भाग्य है और वर्तमान में दुखी रहते हैं। अब पसंद आपकी है कि आप किसे चुनते हैं।
गुजरा समय हमें कई पाठ पढ़ाता है कि हमे क्या करना है और क्या नहीं करना है। प्रत्येक दर्द भरे समय से हम गुजरते हैं और अपने अंदर गहराई को पाते हैं। प्रत्येक खुशी और सुख हमें भविष्य के प्रति आशा बंधाते हैं।
भविष्य का हमें एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत करना चाहिए। यह मुस्कुराहट तब आएगी, जब हम आश्वस्त होंगे कि हमें सब प्रेम करते हैं। यदि आप यह नहीं जानते कि आप दिव्यता के प्रेम से आबद्ध हैं तो जीवन को उत्सव नहीं बना सकते और हमेशा असुरक्षित महसूस करते रहेंगे। यही असुरक्षा हमारे अंदर लालच बढ़ाती है। यही लालच हमें स्वार्थी बनाता है और यही स्वार्थी प्रवृत्ति गुस्सा लाती है, जो हमारी लालसा का कारण भी बनता है। यही प्रक्रम एक चक्र की भांति चलता रहता है।
आप स्वयं को देखें कि बीते समय में कितना समय आपने इसी तरह बिताया है। जब आप यह करें तो उसे अस्वीकार न करें। केवल अपने पर ध्यान लाएं। यही वास्तव में कोमल संतुलन है। यही संतुलन योग है। यही संतुलन अध्यात्म है। कुछ लोग सोचते हैं कि अध्यात्म मूक होता है, कुछ सोचते हैं कि अध्यात्म केवल उत्सव होता है। अध्यात्म वास्तव में हमारे बाहरी मौन और आंतरिक उत्सव को संतुलित करता है। मौन से आने वाला उत्सव सही मायनों में उत्सव होता है।
उत्सव हमेशा किसी संस्कृति, जाति, धर्म और विश्वास में भेदभाव किए बगैर होता है। एकता की मूल धारणा तभी जन्म लेती है, जब सक्षम व अहम लोग विश्व सांस्कृतिक उत्सव में एक साथ आएं व अपनी संप्रभुता, सद्भाव के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करें। ऐसे उत्सव से इस दुनिया को हम संदेश दे सकते हैं कि समाज में अभी भी बहुत कुछ अच्छा बाकी है। यही आशा हमें आगे बढ़ाती है।
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