पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस यानी आएसआइ वक्त-बेवक्त अपनी बदमाशियों का नमूना पेश करती रहती है। साल भर खिंचा कुलभूषण जाधव प्रकरण भी इसमें शामिल है। भारतीय नौसेना के पूर्व अधिकारी जाधव को उसने ईरान से अपहृत कराया जिन्हें पाकिस्तान की गुप्त सैन्य अदालत ने भारतीय ‘जासूस’ करार देते हुए मौत की सजा सुनाई है। यह मामला असल में बुरी तरह से नाकाम देश के धूर्ततापूर्ण व्यवहार का ही परिचायक है जहां कानून का मखौल उड़ाना ही मानो प्रतिमान बन गया है। भले ही पाकिस्तान ने जाधव पर जासूसी का आरोप लगाया, फिर भी वह आइएसआइ द्वारा ईरान से उनके अपहरण या सैन्य अदालत में गुपचुप तरीके से हुई सुनवाई को जायज नहीं ठहरा सकता। वर्ष 2014 में पेशावर स्कूल हमले के बाद पाकिस्तान ने ऐसा सैन्य अदालत तंत्र स्थापित किया जिस पर वहां के संविधान का भी बस नहीं चलता। इसमें न्यायिक कार्यवाही पूरी तरह गुप्त रखी जाती है। आरोपी को अपने पक्ष में वकील रखने की भी इजाजत नहीं दी जाती। सबसे बड़ी विडंबना तो यही है कि इसमें बैठे ‘न्यायाधीश’ के पास जरूरी नहीं कि कानून की कोई डिग्री भी हो और वे बिना कोई कारण बताए भी सजा सुना सकते हैं। सैन्य अदालतों का यही दस्तूर है कि अगर किसी सुबूत की दरकार है भी तो उसकी निर्णायक शक्ति भी फौजी जनरलों के पास है जहां सेना और आइएसआइ किसी भी तरह की नागरिक निगरानी के दायरे से पूरी तरह आजाद हैं। वास्तव में जाधव को सजाए मौत पर पाकिस्तानी सरकार ने नहीं, बल्कि सेना प्रमुख ने ही मुहर लगाई जिसमें इस बात का भी ख्याल नहीं किया गया कि भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्तों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा।
जाधव मामला भी पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत को जानबूझकर उकसाने वाली कवायदों की हालिया मिसाल है जहां पिछले साल की शुरुआत से वह लगातार भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ सिलसिलेवार हमलों को अंजाम देने में लगी हुई है। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं रह गया है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय कानून की हर एक कसौटी का बेशर्मी से उल्लंघन कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में आत्मरक्षा के अधिकार को ‘अंतर्निहित अधिकार’ माना गया है। ऐसे में भारत को पूरा अधिकार है कि वह पाकिस्तान और आइएसआइ सहित उसके सभी आतंकी समूहों के खिलाफ सख्त कदम उठाकर अपने हितों की रक्षा करे। अफसोस की बात यही है कि भारत में एक के बाद एक सरकारें पाकिस्तान के खिलाफ उपयुक्त और निरंतरता वाली नीति बनाने में नाकाम ही रही हैं। इससे पाकिस्तानी सेना का हौसला बढ़ा कि वह भारत के खिलाफ अपनी कुटिल चालों को लगातार चलाए रख सकती है। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे अपने पूर्ववर्तियों की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भारत के जन्मजात दुश्मन पाकिस्तान के खिलाफ डांवाडोल नीति ही अख्तियार की। घरेलू स्तर पर जरूर मोदी पाकिस्तान को लेकर राजनीतिक बयानबाजी करते हैं, लेकिन जब बलूचिस्तान से लेकर सिंधु जल समझौते जैसे अलहदा मसलों की बात आती है तो वह अपने बयानों पर खरे नहीं उतर पाते। असल में तमाम ऐसे वाकये हैं जब वह अपने रुख से पलट गए। स्थाई सिंधु आयोग के निलंबन की ही मिसाल लें जिसे बाद में वापस ले लिया गया। मोदी सरकार सार्वजनिक तौर पर तो सख्त बयानी करती है, लेकिन नीतियों में नरम पड़ते हुए खासी एहतियात के साथ कदम उठाती है। राजीव चंद्रशेखर द्वारा राज्यसभा में पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करने संबंधी निजी सदस्य विधेयक पेश करने का ही उदाहरण लें जिन्हें सरकार ने विधेयक वापस लेने के लिए मना लिया। पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाना तो दूर भारत ने उससे राजनयिक संबंधों को शिथिल बनाने में भी हिचक ही दिखाई है।
इतिहास में 25 दिसंबर, 2015 का दिन जरूर दर्ज होगा जब मोदी किसी औपचारिक कार्यक्रम के बिना लाहौर पहुंच गए। अगर यह दौरा शांति स्थापित करने की मंशा से किया गया था तो उसके नतीजे प्रतिकूल ही साबित हुए। मोदी के शांति प्रस्ताव ने पाकिस्तानी सैन्य हलकों में मोदी की सख्तमिजाज नेता की उस छवि को तोड़ दिया जिसमें माना जाता था कि उन्हें छेड़ना खतरे से खाली नहीं। उनके दौरे से फौजी जनरलों को यही लगा कि मोदी की कथनी और करनी में बहुत अंतर है। उनके दौरे के कुछ दिन बाद ही आइएसआइ ने भारत के खिलाफ दो हमलों को अंजाम दिया। इनमें एक तो पठानकोट एयरबेस पर हुआ तो दूसरा अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर। इन पर भारत की प्रतिक्रिया और भी बदतर थी। पठानकोट हमले में पाकिस्तान से खुफिया जानकारी साझा की गई और आतंक के मसले पर सहयोग की झूठी आस में एयरबेस पर पाकिस्तानी जांच टीम को मुआयने की मंजूरी दी। इससे उत्साहित पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ और हमलों का तानाबाना बुनने लगी जहां भारतीय निष्क्रियता मोदी की सख्त छवि को तार-तार कर रही थी। फिर उड़ी में सैन्य शिविर पर हुए हमले में तो पानी सिर से ऊपर चला गया जो मोदी के लिए निर्णायक क्षण बन गया। पिछले एक-डेढ़ दशक में यह भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान पर हुआ सबसे घातक हमला था।
जब मोदी को यह महसूस हुआ कि वह महज कागजी शेर बनकर न रह जाएं तो उन्होंने सीमा पार आतंकी शिविरों को नष्ट करने के लिए सीमित, लेकिन बहुप्रचारित सैन्य अभियान को मंजूरी दी। पाकिस्तान को लेकर उकताई भारतीय जनता का धैर्य जवाब देने लगा था और उसने सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कदम की भरपूर सराहना की जिससे उसके कलेजे को भी ठंडक मिली। हालांकि ऐसी इकलौती कार्रवाई से भी पाकिस्तानी सेना के होश ठिकाने नहीं आए और उसने तुरंत ही नगरोटा में सैन्य शिविर को निशाना बनाया, मगर उस हमले पर मोदी रहस्यमयी चुप्पी साधकर रह गए।
आइएसआइ प्रायोजित आतंकी हमलों के बावजूद भारत आतंक के खिलाफ कोई ठोस रणनीति बनाने में नाकाम रहा। सीमा पर मादक पदार्थों की तस्करी के पीछे भी आइएसआइ का ही हाथ है जो सीमावर्ती पंजाब की युवा पीढ़ी में नारकोटिक्स का जहर घोल उसे खोखला बना रहा है।
हकीकत में पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ जंग में मसरूफ है जबकि भारत अपने फौजियों की शहादत के बावजूद दुश्मन पर करारी चोट करने से हिचक रहा है। भारत तमाम विकल्प आजमा सकता है जिनमें परोक्ष रूप से जंग छेड़ने वालों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई भी शामिल है, मगर उससे पहले भारत को स्पष्ट सामरिक लक्ष्य और राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति दर्शानी होगी। अगर इस क्षेत्र में शांति स्थापित करनी है तो उसके लिए पाकिस्तानी सेना के रवैये को सुधारना बेहद जरूरी है। आखिरकार सीमा-शांति, सीमा-पार घुसपैठ और आतंकवाद के अलावा परमाणु स्थायित्व जैसे सभी अहम मसले दांव पर जो लगे हैं जिन पर इस्लामाबाद की चुनी हुई सरकार का कोई अख्तियार नहीं, क्योंकि ये पाकिस्तानी सेना के विशेषाधिकार के दायरे में आते हैं।
जाधव मामला दर्शाता है कि जब तक भारत पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाने से परहेज करेगा तब तक वहां की सेना भारत के खिलाफ कुटिल चालें चलने से बाज नहीं आएगी। वास्तव में जाधव का दांव उसने भारत के साथ सौदेबाजी के लिए ही चला था। पाकिस्तान के साथ सीमा पार आतंकवाद से जंग अकेले भारत की है, जिसे बयानबाजी से नहीं, बल्कि कड़ी कार्रवाई से ही लड़ा जाए।
[ लेखक सामरिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं ]
By Bhupendra Singh
जाधव मामला भी पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत को जानबूझकर उकसाने वाली कवायदों की हालिया मिसाल है जहां पिछले साल की शुरुआत से वह लगातार भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ सिलसिलेवार हमलों को अंजाम देने में लगी हुई है। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं रह गया है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय कानून की हर एक कसौटी का बेशर्मी से उल्लंघन कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में आत्मरक्षा के अधिकार को ‘अंतर्निहित अधिकार’ माना गया है। ऐसे में भारत को पूरा अधिकार है कि वह पाकिस्तान और आइएसआइ सहित उसके सभी आतंकी समूहों के खिलाफ सख्त कदम उठाकर अपने हितों की रक्षा करे। अफसोस की बात यही है कि भारत में एक के बाद एक सरकारें पाकिस्तान के खिलाफ उपयुक्त और निरंतरता वाली नीति बनाने में नाकाम ही रही हैं। इससे पाकिस्तानी सेना का हौसला बढ़ा कि वह भारत के खिलाफ अपनी कुटिल चालों को लगातार चलाए रख सकती है। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे अपने पूर्ववर्तियों की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भारत के जन्मजात दुश्मन पाकिस्तान के खिलाफ डांवाडोल नीति ही अख्तियार की। घरेलू स्तर पर जरूर मोदी पाकिस्तान को लेकर राजनीतिक बयानबाजी करते हैं, लेकिन जब बलूचिस्तान से लेकर सिंधु जल समझौते जैसे अलहदा मसलों की बात आती है तो वह अपने बयानों पर खरे नहीं उतर पाते। असल में तमाम ऐसे वाकये हैं जब वह अपने रुख से पलट गए। स्थाई सिंधु आयोग के निलंबन की ही मिसाल लें जिसे बाद में वापस ले लिया गया। मोदी सरकार सार्वजनिक तौर पर तो सख्त बयानी करती है, लेकिन नीतियों में नरम पड़ते हुए खासी एहतियात के साथ कदम उठाती है। राजीव चंद्रशेखर द्वारा राज्यसभा में पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करने संबंधी निजी सदस्य विधेयक पेश करने का ही उदाहरण लें जिन्हें सरकार ने विधेयक वापस लेने के लिए मना लिया। पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाना तो दूर भारत ने उससे राजनयिक संबंधों को शिथिल बनाने में भी हिचक ही दिखाई है।
इतिहास में 25 दिसंबर, 2015 का दिन जरूर दर्ज होगा जब मोदी किसी औपचारिक कार्यक्रम के बिना लाहौर पहुंच गए। अगर यह दौरा शांति स्थापित करने की मंशा से किया गया था तो उसके नतीजे प्रतिकूल ही साबित हुए। मोदी के शांति प्रस्ताव ने पाकिस्तानी सैन्य हलकों में मोदी की सख्तमिजाज नेता की उस छवि को तोड़ दिया जिसमें माना जाता था कि उन्हें छेड़ना खतरे से खाली नहीं। उनके दौरे से फौजी जनरलों को यही लगा कि मोदी की कथनी और करनी में बहुत अंतर है। उनके दौरे के कुछ दिन बाद ही आइएसआइ ने भारत के खिलाफ दो हमलों को अंजाम दिया। इनमें एक तो पठानकोट एयरबेस पर हुआ तो दूसरा अफगानिस्तान के मजार-ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर। इन पर भारत की प्रतिक्रिया और भी बदतर थी। पठानकोट हमले में पाकिस्तान से खुफिया जानकारी साझा की गई और आतंक के मसले पर सहयोग की झूठी आस में एयरबेस पर पाकिस्तानी जांच टीम को मुआयने की मंजूरी दी। इससे उत्साहित पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ और हमलों का तानाबाना बुनने लगी जहां भारतीय निष्क्रियता मोदी की सख्त छवि को तार-तार कर रही थी। फिर उड़ी में सैन्य शिविर पर हुए हमले में तो पानी सिर से ऊपर चला गया जो मोदी के लिए निर्णायक क्षण बन गया। पिछले एक-डेढ़ दशक में यह भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान पर हुआ सबसे घातक हमला था।
जब मोदी को यह महसूस हुआ कि वह महज कागजी शेर बनकर न रह जाएं तो उन्होंने सीमा पार आतंकी शिविरों को नष्ट करने के लिए सीमित, लेकिन बहुप्रचारित सैन्य अभियान को मंजूरी दी। पाकिस्तान को लेकर उकताई भारतीय जनता का धैर्य जवाब देने लगा था और उसने सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कदम की भरपूर सराहना की जिससे उसके कलेजे को भी ठंडक मिली। हालांकि ऐसी इकलौती कार्रवाई से भी पाकिस्तानी सेना के होश ठिकाने नहीं आए और उसने तुरंत ही नगरोटा में सैन्य शिविर को निशाना बनाया, मगर उस हमले पर मोदी रहस्यमयी चुप्पी साधकर रह गए।
आइएसआइ प्रायोजित आतंकी हमलों के बावजूद भारत आतंक के खिलाफ कोई ठोस रणनीति बनाने में नाकाम रहा। सीमा पर मादक पदार्थों की तस्करी के पीछे भी आइएसआइ का ही हाथ है जो सीमावर्ती पंजाब की युवा पीढ़ी में नारकोटिक्स का जहर घोल उसे खोखला बना रहा है।
हकीकत में पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ जंग में मसरूफ है जबकि भारत अपने फौजियों की शहादत के बावजूद दुश्मन पर करारी चोट करने से हिचक रहा है। भारत तमाम विकल्प आजमा सकता है जिनमें परोक्ष रूप से जंग छेड़ने वालों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई भी शामिल है, मगर उससे पहले भारत को स्पष्ट सामरिक लक्ष्य और राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति दर्शानी होगी। अगर इस क्षेत्र में शांति स्थापित करनी है तो उसके लिए पाकिस्तानी सेना के रवैये को सुधारना बेहद जरूरी है। आखिरकार सीमा-शांति, सीमा-पार घुसपैठ और आतंकवाद के अलावा परमाणु स्थायित्व जैसे सभी अहम मसले दांव पर जो लगे हैं जिन पर इस्लामाबाद की चुनी हुई सरकार का कोई अख्तियार नहीं, क्योंकि ये पाकिस्तानी सेना के विशेषाधिकार के दायरे में आते हैं।
जाधव मामला दर्शाता है कि जब तक भारत पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाने से परहेज करेगा तब तक वहां की सेना भारत के खिलाफ कुटिल चालें चलने से बाज नहीं आएगी। वास्तव में जाधव का दांव उसने भारत के साथ सौदेबाजी के लिए ही चला था। पाकिस्तान के साथ सीमा पार आतंकवाद से जंग अकेले भारत की है, जिसे बयानबाजी से नहीं, बल्कि कड़ी कार्रवाई से ही लड़ा जाए।
[ लेखक सामरिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं ]
By Bhupendra Singh
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