हिन्दू धर्म के पक्ष में
देशबन्धुओं और सहधर्मियों !
मुझे यह जानकर परम संतोष है कि अपने धर्म के प्रति मेरी नगण्य सेवा आपको मान्य हुई है। मुझे यह सन्तोष इसलिए नहीं कि आपने मेरी व्यक्तिगत या दूर विदेश में मेरे किए हुए कार्य की प्रशंसा की है; वरन् यह सन्तोष मुझे इस कारण है कि हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान में आपका यह आनन्द यही स्पष्टतः सूचित करता है कि यद्यपि विदेशियों के आक्रमण की आँधी पर आँधी हतभाग्य भारतवर्ष के भक्ति-विनम्रमस्तक पर आघात करती चली गयी है, यद्यपि कई शताब्दियों के हमारे उपेक्षा-भाव और हमारे विजेताओं के तिरस्कार-भाव ने हमारे पुरातन आर्यावर्त के वैभव के प्रकाश को धुँधला कर दिया है, यद्यपि हिन्दू-धर्मरूप सौध के अनेक भव्य आधारस्तम्भ बहुतेरी सुन्दर कमानियाँ और बहुतेरे विचित्रतापूर्ण कोने-कोने कई सदियों तक जो देश के प्रलयमग्न करनेवाली बाढ़ें आयीं उनमें बहकर नष्ट हो गये, तथापि उसकी नींव पूर्णतः ज्यों की त्यों अटल है—मध्यवर्ती भारवाही सन्धिशिला सुदृढ़ है।
मुझे यह जानकर परम संतोष है कि अपने धर्म के प्रति मेरी नगण्य सेवा आपको मान्य हुई है। मुझे यह सन्तोष इसलिए नहीं कि आपने मेरी व्यक्तिगत या दूर विदेश में मेरे किए हुए कार्य की प्रशंसा की है; वरन् यह सन्तोष मुझे इस कारण है कि हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान में आपका यह आनन्द यही स्पष्टतः सूचित करता है कि यद्यपि विदेशियों के आक्रमण की आँधी पर आँधी हतभाग्य भारतवर्ष के भक्ति-विनम्रमस्तक पर आघात करती चली गयी है, यद्यपि कई शताब्दियों के हमारे उपेक्षा-भाव और हमारे विजेताओं के तिरस्कार-भाव ने हमारे पुरातन आर्यावर्त के वैभव के प्रकाश को धुँधला कर दिया है, यद्यपि हिन्दू-धर्मरूप सौध के अनेक भव्य आधारस्तम्भ बहुतेरी सुन्दर कमानियाँ और बहुतेरे विचित्रतापूर्ण कोने-कोने कई सदियों तक जो देश के प्रलयमग्न करनेवाली बाढ़ें आयीं उनमें बहकर नष्ट हो गये, तथापि उसकी नींव पूर्णतः ज्यों की त्यों अटल है—मध्यवर्ती भारवाही सन्धिशिला सुदृढ़ है।
वह आध्यात्मिक भित्त—जिस पर हिन्दू जाति की ईश्वर-भक्ति और भूतदया का अपूर्व कीर्तिस्तम्भ स्थापित हुआ है वह किंचित् भी विचलित नहीं हुई, वरन् पूर्ववत् सुदृढ़ और सबल बनी हुई है। जिन ईश्वर का सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उन ईश्वर के प्रति आपका आदरभाव सचमुच अपूर्व है। यह आपकी जन्मजात धार्मिक प्रकृति है, जिसके कारण आप उन ईश्वर में और उसके सन्देश में धर्म के उस प्रबल तरंग की प्रथम गूँज का अनुभव कर रहे हैं जो निकट भविष्य में सारे भारत वर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य शक्ति के साथ अश्वयमेव आघात करेगी और अपनी अनन्त शक्तिसम्पन्न बाढ़ द्वारा हर प्रकार की दुर्बलता और सदोषिता को दूर बहा ले जायगी तथा हिन्दू जाति को उठाकर विधि-नियोजित उस उच्च आसन पर बिठा देगी जहाँ उसका पहुँचना निश्चित और अनिवार्य है; वहाँ वह भूतकाल की अपेक्षा और भी अधिक वैभवशाली बनेगा, शताब्दियों की नीरव कष्ट-सहिष्णुता का उपयुक्त पुरस्कार पाएगा और संसार की समस्त जातियों के मध्य अपने उद्देश्य-आध्यात्मिक प्रकृतिसम्पन्न मानवजाति के विकास—को पूर्ण करेगा।
उत्तर भारतवासी आप दक्षिणात्यों के विशेष कृतज्ञ हैं, क्योंकि आज भारतवासी में जो भावमयी स्फूर्तियाँ काम कर रही हैं उनमें से अधिकांश का इसी दक्षिण प्रदेश से उद्गम होना पाया जाता है। श्रेष्ठ भाष्यकारगण, युगप्रवर्तक आचार्यगण—शंकर, रामानुज और मध्व ने इसी दक्षिण भारत में जन्म लिया है। उन भगवान् शंकराचार्य के सामने संसार का प्रत्येक अद्वैतवादी ऋणी हो मस्तक झुकाता है; उन महात्मा रामानुजाचार्य के स्वर्गीय स्पर्श ने पददलित परिया1 लोगों को आलवार बना दिया; तथा उत्तर भारत के एकमात्र महापुरुष श्रीकृष्णचैतन्य, जिनका प्रभाव सारे भारतवर्ष में है, उनके अनुयायियों ने भी उन महाविभूति मध्वाचार्य का नेतृत्व स्वीकार किया। ये सभी दक्षिण में ही उत्पन्न हुए। इस वर्तमान युग में भी काशीपुर के वैभव में अग्रस्थान दक्षिणात्यों का ही है; आपके त्याग का ही अधिकार हिमालय के सुदूरवर्ती शिखरों पर के पवित्र मन्दिरों पर है; और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आपकी नसों में सन्त महापुरुषों के रक्त प्रवाहित होने का कारण तथा ऐसे आचार्यों के आशीर्वाद से धन्य जीवन आपको प्राप्त होने के कारण आप लोग ही भगवान श्रीरामकृण के सन्देश के मर्म को समझने में और उसे आदरपूर्वक ग्रहण करने में सर्वप्रथम अग्रसर हो रहे हैं।
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1. दक्षिण भारत की चण्डालतुल्य नीच जातिविशेष को परिया कहते है। ‘आलवार’ शब्द का अर्थ है भक्त। विशिष्टाद्वैतवादी भक्तगण आलवार कहलाते हैं।
दक्षिण ही वैदिक- विद्या का भाण्डार रहा है, अतएव आप लोग मेरा यह कहना समझ लेंगे कि अज्ञ आक्रमणकारियों द्वारा पुनः प्रतिवाद होते रहने पर भी आज श्रुति1 ही हिन्दी धर्म के सभी विभिन्न सम्प्रदायों का मेरुदण्ड है।
वेद के संहिता और ब्राह्मण2 भागों की महिमा मानवजाति के इतिहास की खोज लगाने वालों के लिए और शब्दशास्त्रियों के लिए चाहे जितनी अधिक हो, ‘‘अग्निमीळे’’ या ‘‘इषेत्वोर्जेत्वा’’ या ‘‘शन्नोदेवीरभीष्टये’’3 वेदमन्त्रों से विभिन्न वेदियों में यज्ञों और आहुतियों के संयोग से प्राप्य फलसमूह चाहे जितना वांछनीय हो—पर यह सब तो भोग मार्ग है, और किसी ने भी इसके द्वारा मोक्षप्राप्ति का दावा नहीं किया। इसी कारण ज्ञानकाण्ड, जो अरण्यक नामक श्रुति का श्रेष्ठ भाग है और जिसमें आध्यात्मिकता की, मोक्ष मार्ग की शिक्षा दी गयी है, उसी का प्रभुत्व भारत में आज तक सदा रहा है तथा भविष्य में भी रहेगा।
वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन-धर्म के अनेक पन्थों की भूलभुलैयों में भटका हुआ, उस एकमात्र हिन्दू धर्म को—जिसकी सार्वजनीन उपयोगिता तदुपदिष्ट ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’’ ईश्वर का यथार्थ प्रतिबिम्ब है उस धर्म के मर्म को, अपने भ्रमात्मक पूर्व-धारणाओं और दुराग्रहों के कारण, ग्रहण करने में असमर्थ होने से, जिन राष्ट्रों ने निरी भौतिकता के सिवाय कभी भी और कुछ नहीं जाना उनसे आध्यात्मिक सत्य का पुराना पैमाना उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ का कष्ट उठाता हुआ अन्त में उस खोज को बिलकुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेयवादी बन जाता
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1. वेद। 2. चारों वेदों में से प्रत्येक के तीन भाग हैं। (क) संहिता—इसमें भिन्न-भिन्न देवताओं के प्रति रचे हुए स्तोत्रात्मक मन्त्र हैं। (ख) ब्राह्मण—यह वेद का वह वर्णनात्मक भाग है जिसमें यह दर्शाया है कि किस मन्त्र का किस यज्ञ में कैसे प्रयोग करना चाहिए। (ग) आरण्य—इस भाग में अरण्य में ऋषियों द्वारा प्रतिपादित तत्वों का वर्णन है। उपनिषद् इन्हीं आरण्यक के अन्तर्गत हैं।
3. ये तीन यथाक्रम ऋक्, यजुः तथा अथर्व वेद के प्रथम श्लोक के अंश हैं।
है या अपनी धार्मिक प्रकृति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में समर्थ नहीं हो पाता और पाश्चिमात्य भौतिकता के पौर्वात्य गन्धारी कषायों का असावधानी के साथ पान करके श्रुति की भविष्यवाणी ‘‘परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्थाः’’1 को चरितार्थ करता है !
केवल वे ही बच पाते हैं जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सद्गुरु के संजीवनी-स्पर्श से जागृत हो चुकी है।
भगवान भाष्यकार2 की कैसी सुन्दर उक्ति है :—
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः।।3
—‘‘ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं—मनुष्यजन्म, मोक्ष की इच्छा और महात्माओं की संगति।’’
चाहे वह वैश्विकों4 का सूक्ष्म विश्लेषण ही हो, जिसके परिणाम में परमाणु, द्वयुणु और त्रसरेणु के विचित्र सिद्धान्त निकाले गए हैं, चाहे वह नैयायिकों का उससे भी विचित्रर विश्लेषण हो, जो जाति, द्रव्य, गुण, समवाय5 की चर्चा में दीख पड़ता है, चाहे वह परिणामवाद के जन्मदाता सांख्यवादियों के गम्भीर विचारों की प्रगति ही हो, इन सब संशोधनों के परिणामस्वरूप ‘व्याससूत्र’ रूपी परिपक्व फल ही क्यों न हो—मानवी मन के इन विभिन्न विश्लेषणों और संश्लेषणों में वह ‘श्रुति’ ही एकमात्र आधार है।
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1. कठोपनिषद् एक अन्धे के द्वारा पथ प्रदर्शित हुए दूसरे अन्धे की तरह मूढ़ इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं। 2. श्रीशंकराचार्य 3. विवेकचूणामणि, श्लोक 3।
4. द्वयणु—दो अणुओं की सम्मिलित अवस्था, त्रसरेणु—तीन अणुओं की सम्मिलित अवस्था। हिन्दुओं के छः मुख्य दर्शन है—(1) वैशषिक—कणाद प्रणीत, (2) न्याय-गौतम प्रणीत, (3) सांख्य—कपिल प्रणीत, (4) योग—पतंजलि प्रणीत, (5) पूर्व मीमांसा (वैदिक क्रियाकाण्ड की मींमांसा)—जैमिनी प्रणीत, (6) वेदान्त या व्याससूत्र—व्यास प्रणीत।
5. द्रव्य—न्याय के मतानुसार नौ द्रव्य है—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, आत्मा और मन। जाति—वस्तुओं का साधारण धर्म जिसके आधार पर उनका श्रेणीविभाग किया जा सकता है, जैसे पशुत्व मनुष्यत्व। आदि गुण-न्यायमन में इन्हें गुण कहते हैं; रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमित, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द। समवाय—जैसे, घट और जिस मृत्तिका से उसका निर्माण होता है, दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध है।
चाहे वह वैश्विकों4 का सूक्ष्म विश्लेषण ही हो, जिसके परिणाम में परमाणु, द्वयुणु और त्रसरेणु के विचित्र सिद्धान्त निकाले गए हैं, चाहे वह नैयायिकों का उससे भी विचित्रर विश्लेषण हो, जो जाति, द्रव्य, गुण, समवाय5 की चर्चा में दीख पड़ता है, चाहे वह परिणामवाद के जन्मदाता सांख्यवादियों के गम्भीर विचारों की प्रगति ही हो, इन सब संशोधनों के परिणामस्वरूप ‘व्याससूत्र’ रूपी परिपक्व फल ही क्यों न हो—मानवी मन के इन विभिन्न विश्लेषणों और संश्लेषणों में वह ‘श्रुति’ ही एकमात्र आधार है।
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1. कठोपनिषद् एक अन्धे के द्वारा पथ प्रदर्शित हुए दूसरे अन्धे की तरह मूढ़ इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं। 2. श्रीशंकराचार्य 3. विवेकचूणामणि, श्लोक 3।
4. द्वयणु—दो अणुओं की सम्मिलित अवस्था, त्रसरेणु—तीन अणुओं की सम्मिलित अवस्था। हिन्दुओं के छः मुख्य दर्शन है—(1) वैशषिक—कणाद प्रणीत, (2) न्याय-गौतम प्रणीत, (3) सांख्य—कपिल प्रणीत, (4) योग—पतंजलि प्रणीत, (5) पूर्व मीमांसा (वैदिक क्रियाकाण्ड की मींमांसा)—जैमिनी प्रणीत, (6) वेदान्त या व्याससूत्र—व्यास प्रणीत।
5. द्रव्य—न्याय के मतानुसार नौ द्रव्य है—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, आत्मा और मन। जाति—वस्तुओं का साधारण धर्म जिसके आधार पर उनका श्रेणीविभाग किया जा सकता है, जैसे पशुत्व मनुष्यत्व। आदि गुण-न्यायमन में इन्हें गुण कहते हैं; रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमित, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द। समवाय—जैसे, घट और जिस मृत्तिका से उसका निर्माण होता है, दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध है।
प्रकाशक : रामकृष्ण मठ
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