Monday, 3 April 2017

मस्जिद में गौशाला और मुसलमान गौरक्षक

मध्य प्रदेश के मुफ्ती-ए-आजम अब्दुर्रज्जाक खान 1984 से निजी तौर पर गौपालन कर रहे हैं. आज भी इनकी गौशाला में आठ गायें हैं

गौशाला मस्जिद में भी हो सकती है और गौरक्षक मुसलमान भी

यह मिसाल है, उन लोगों के लिए जो गाय को हरे या केसरिया रंग में रंगने में लगे हैं. जो उसके बड़े और निर्बाध अस्तित्व को दायरों में बांधने-समेटने की कोशिश कर रहे हैं. और ये मिसाल निकलती है, मध्य प्रदेश के मुफ्ती-ए-आजम अब्दुर्रज्जाक खान की निजी गौशाला से, जहां रहने वाली गायें सिर्फ इंसान और उन्हें रोटी देने वाले हाथ को पहचानती हैं.
भोपाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर इंदौर हाई-वे पर टोल नाके से आधा-एक किलोमीटर पहले ही दाहिनी तरफ एक रास्ता तूमड़ा गांव की तरफ जाता है. इस रास्ते में दो-तीन किलोमीटर भीतर जाने पर एक बड़ी सी मस्जिद नजर आती है. मुफ्ती अब्दुर्रज्जाक की ही करीब 60 एकड़ निजी जमीन पर 24,000 वर्गफीट में बनी इस दारुल उलूम हुसैनिया मस्जिद (नीचे तस्वीर में) के पास ही दुधारू जानवरों का एक बाड़ा है. इस बाड़े में 20-25 बकरियां हैं. चार-पांच भैंसें और इन सबके साथ छह-सात गायें भी हैं. इस बाड़े की सबसे पुरानी रहवासी ये गायें ही हैं क्योंकि मुफ्ती अब्दुर्रज्जाक से इनका नाता तीन दशक से ज्यादा पुराना हो चुका है. एक तरह से कहें तो बचपन से ही.
खुद मुफ्ती बताते हैं, ‘जब सात-आठ साल का था, तब मेरे भाई ने 13 रुपए में एक गाय सहारनपुर (उत्तरप्रदेश) से खरीदी थी. तभी से इससे मुझे मोहब्बत हो गई थी. हालांकि, इसके बाद बड़ा हुआ तो पढ़ाई-लिखाई और दूसरे चीजों में मशरूफ हो गया. इसी दौरान भोपाल आना हुआ और फिर यहीं का हो गया. लेकिन पूरे दौर में गाय की खिदमत करने की मंशा मेरे मन में हमेशा बनी रही. इसी बीच 1984 में ऐसा वाकया हुआ कि गाय से मेरा नाता फिर जुड़ गया, जो बदस्तूर बना हुआ है.’ यहां बताते चलें कि मुफ्ती अब्दुर्रज्जाक की उम्र इस वक्त करीब 93 साल हो चुकी है.

दारुल उलूम हुसैनिया मस्जिद

उनके पांचवें नंबर के दामाद सूफी मुशाहिद उज्ज़मा खान उस वाकये के बारे में बताते हैं, जब मुफ्ती अब्दुर्रज्जाक का नाता दोबारा गाय से हुआ. उनके मुताबिक, ‘उस वक्त (1984 में) मुफ्ती साहब की बेगम शम्शुन्निसा की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. उनकी किडनियां खराब थीं. डॉक्टरों ने मशविरा दिया कि उन्हें गाय का दूध पिलाएं. फायदा होगा. मुफ्ती साहब भी इस मशविरे से मुतमईन (सहमत) थे. लिहाजा, उन्होंने अपने बेटे को अब्दुल रक़ीब को कहा कि गाय खरीद लाएं. वे भोपाल के नज़दीकी कस्बे गैरतगंज से तब 1,500 रुपए में पहली गाय लेकर आए थे. उसे भोपाल में मस्जिद के पास ही रखा गया था. उसके बाद शम्शुन्निसा बेगम तो दो साल ही इस दुनिया में रह पाईं. लेकिन गाय हमेशा के लिए हमारे पास रह गई. आज हमारी गौशाला जो गायें हैं, वे सब उसी के वंश की हैं.’
मुशाहिद बताते हैं, ‘शहर में गाय को पालने और रखने में दिक्कतें होती थीं. इसलिए हमने उन्हें यहां (तूमड़ा रोड की गौशाला में) रख दिया. हुसैनिया मदनी सोशल वेलफेयर सोसायटी के बैनर तले हमने यहां एक मदरसा भी शुरू किया. इसमें करीब 200 बच्चे पढ़ते हैं. गायों और दूसरे जानवरों की देखभाल तथा बाकी कामों के लिए पांच परिवार भी यहां चौबीसों घंटे रहते हैं. गायों का दूध इन्हीं सबके काम आता है. कुछ बच गया तो मुफ्ती साहब के परिवार के लिए भोपाल भेज दिया जाता है. लेकिन बेचा नहीं जाता.’
मुफ्ती अब्दुर्रज्जाक खुद गाय के दूध और यहां तक कि गौ-मूत्र को भी मुकद्दस (पवित्र) मानते हैं. वे बताते हैं, ‘हकीमी (चिकित्सा संबंधी) किताबों में लिखा है कि गाय का गोश्त बीमारी है. दूध उसका दवा है. यह खाने के लिए है. यहां तक कि गाय का पेशाब भी दवा की तरह बताया गया है. मजहबी (धार्मिक) किताबों में भी लिखा है कि अगर गाय की पेशाब के छींटे जिस्म पर गिर जाएं उसके बाद हमें वुज़ू (नमाज से पहले हाथ-मुंह धोना) करने की भी जरूरत नहीं रह जाती.’
फिर मौजूदा माहौल पर वे दुख भी जताते हैं, ‘लोगों को इल्म नहीं है. बहुतों को तो यह भी नहीं मालूम कि दारुल उलूम देवबंद का फतवा है कि गाय का गोश्त नहीं खाना है. मगर अफसोस कि लोग समझने को, मानने को तैयार नहीं हैं. दूसरी जानिब (हिन्दुओं में) भी यही हाल है. गुमराह लोगों की भीड़ बढ़ रही है. यही भीड़ मजहब के नाम पर लड़ने-लड़ाने में लगी है. लगता है, अब ऊपर वाला ही इन्हें राह दिखा सकता है.’
नीलेश द्विवेदी

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