देश में राष्ट्रवाद अपने उफान पर है. देशभक्ति और देशद्रोह की अग्निपरीक्षाएं ली और दी जा रही है. देश की केंद्रीय सत्ता पर एक राष्ट्रवादी सरकार जो काबिज है. इस सरकार के लिए राष्ट्रवाद का सवाल बाकी सवालों से ऊपर है. क्यों न थोड़ी चर्चा इस राष्ट्रवाद पर कर ली जाए.
इस सरकार की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति निष्ठा संविधान से कम नहीं है. संघ और मोदी सरकार के लिए राष्ट्र वही है जिसको कभी माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने प्रस्तावित किया था. संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ या ‘हिंदुस्थान’के सिद्धांतकार माने जाते हैं. 1939 में अपनी किताब ‘नेशनलिस्ट थॉट ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में उन्होंने राष्ट्र को परिभाषित किया. गुरुजी का राष्ट्र हिंदुत्व के मूल्यों को धारण करने वाला है. यही हिंदू राष्ट्र या हिंदुस्थान है.
गुरुजी के राष्ट्रवाद की बुनियाद हिंदुत्व की वह परिभाषा है जो उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर से ग्रहण की. सावरकर ने 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) में हिंदू महासभा के 19वें सत्र को संबोधित करते हुए हिंदुत्व की परिभाषा दी. उन्होंने वेद को साक्षी मानकर कहा,
स्तालिन की तरह ही गोलवलकर ने राष्ट्र के लिए कुछ आवश्यक घटकों को जरूरी बताया. हिंदुस्थान के प्राचीन राजनीतिक विद्वानों के विचारों को समेटते हुए गोलवलकर ने राष्ट्र के लिए पांच तत्वों – भौगोलिक (country), जातीय (race), धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषिक – की एकता को जरूरी माना है. सावरकर ने हिंदू के लिए सिंधु से जहां हिंद महासागर तक की चौहद्दी को नापा वहीं गोलवलकर ने ‘पृथिव्यैसमुद्रपर्यन्ताया एकराट’ अर्थात सागर से सागर तक की सीमा बांध दी. गोलवलकर मानते हैं कि नेशन के अनुवाद के रूप में राष्ट्र को देखा जाता है लेकिन राष्ट्र के अर्थ नेशन से व्यापक हैं. उन्होंने ‘स्वराज’ शब्द का प्रयोग किया है जो राष्ट्रीय जाति की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है जिसे समुद्रपर्यंत धन संपदा प्राप्त है. ‘पशुधान्यहिरण्यसंपदा राजते शोभते इति राष्ट्रम.’ हालांकि राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट करने के लिए उन्होंने देश और जाति को मिश्रित करने की बात कही.
गोलवलकर के अनुसार किसी जाति के राष्ट्रीय जीवन के लिए देश से प्रेम होना आवश्यक है. राष्ट्रवादी सोच की अभिव्यक्ति देशभक्ति में भी होनी चाहिए. पितृभूमि पर गर्व होने के साथ ‘मातृभूमि’ से प्रेम हमारी राष्ट्रीय चेतना को प्रदर्शित करती है. गोलवलकर मानते हैं कि मातृभूमि से प्रेम हमेशा से हिंदू जाति में मौजूद रहा है. इसके लिए उन्होंने रामायण का उदाहरण दिया है. राम जब लंका में होते हैं तब उन्हें अपनी अयोध्या बहुत याद आती है. वे लक्ष्मण से कहते हैं :
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचतेजननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी..
यह सोने की लंका मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती. मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं. इसी संदर्भ में एडवर्ड सईद ने कहा था कि नया या पुनर्जागृत राष्ट्रवाद आख्यान का सहारा लेता है. रामायण द्वारा हिंदू मानस को उसकी धार्मिक व महाकाव्यात्मक स्मृतियों से जोड़ दिया गया. पितृभूमि की विचारधारा में ‘नमस्ते सदावत्सले’ का प्रवेश हो गया.
“आसिंधूसिंधुपर्यता यस्य भारत भूमिकापितृ भूःपुण्यभूयैश्चैव स वै हिंदुरितिस्मृतः.”
अर्थात वे सभी लोग हिंदू हैं जो सिंधु नदी से हिंद महासागर तक फैली भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानते हैं. यहां ध्यान देना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति जो भारतभूमि के केवल किसी धर्म को धारण करता है उसे हिंदू मान लेना हल्की बात होगी. पितृभूमि के वारिस हुए बिना पुण्यभूमि की विरासत का दावा अधूरा होगा. जिनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों एक ही हो वही राष्ट्र के असली वारिस हैं.
इस परिभाषा के मुताबिक, भारत में वैदिक या सनातनी, बौद्ध, जैन, सिख और आर्यसमाजी आदि तो हिंदू की परिधि में आते हैं लेकिन मुस्लिम, ईसाई और यहूदी बाहर हो जाते हैं. पितृभूमि और पुण्यभूमि की कसौटी ने बड़ी कुशलता से मुसलमानों और ईसाईयों को ‘हिंदुस्थान’ में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया.
ध्यान देने की बात है कि सावरकर ने हिंदूवाद (हिंदुइज़्म) की जगह हिंदुत्व को तरजीह दी है. उनके अनुसार हिंदुइज़्म एक नाकाफी शब्द है जो हिंदुत्व के कुछ ही मूल्यों को अभिव्यक्त कर पाता है. उनकी मान्यता के पीछे ‘वाद’ का विवाद था जिससे कोई भी अवधारणा समावेशी (इन्क्लूसिव) नहीं रह पाती. सावरकर ने हिंदू शब्द के प्रयोग में सावधानी बरतने की हिदायत भी दी. मतलब जो पंथ या धार्मिक समूह वैदिक काल के बाद उपजे उन्हें उनकी पहचान के साथ हिंदुत्व में समाहित करते हुए घालमेल से बचा जाए.
मसलन ‘हिंदू और बौद्ध’ या ‘हिंदू और जैन’ का भ्रामक प्रयोग करने की जगह ‘वैदिक और बौद्ध’ या ‘वैदिक और जैन’ का व्यवहार किया जाए. हिंदुस्थान का एक राष्ट्र के रूप में प्रयोग सावरकर कर चुके थे. इसकी संभावित समस्याएं भी उन्हें दिखाई पड़ रही थीं. बावजूद इसके कुछ धार्मिक पहचानों को यत्नपूर्वक राष्ट्र की परिधि से बाहर रखने के लिए पुण्यभूमि का विचार जोड़ दिया गया.
जापान और चीन के उदाहरण से सावरकर ने हिंदुत्व की भौगोलिक सीमा तय की. इन दोनों देशों की पुण्यभूमि भारत है लेकिन पितृभूमि नहीं. इसीलिए यहां के लोगों को हिंदू नहीं माना जा सकता. अप्रवासी भारतीय इस सिद्धांत के तहत हिंदू बने रह सकते हैं. इतनी सुविधा तो दी ही गई है.
सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा ने हिंदुस्थान का राष्ट्रवादी आधार तैयार किया. गोलवलकर ने जब राष्ट्र को परिभाषित करने का जिम्मा लिया तो उनकी बुनियादी मंशा भी एक समावेशी अवधारणा निर्मित करने की रही. नेशनलिज़्म (राष्ट्रवाद) के बजाय उन्होंने नेशनहुड (राष्ट्रीयता) शब्द का चुनाव किया. यह वह दौर था जब नेशन या राष्ट्र विश्व भर में बहसें चल रही थीं. गोलवलकर के पहले ही राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता की बातें की जा चुकीं थीं. 11 मार्च 1882 को ‘व्हॉट इज अ नेशन ’ विषय पर एक व्याख्यान में अर्नेस्ट रैनन ने माना कि राष्ट्र सही अर्थों में आत्मा की तरह एक आध्यात्मिक सिद्धांत है. दो चीजें हैं जो इस सिद्धांत को निर्धारित करती हैं. पहली है स्मृतियों की समृद्ध विरासत का भोग. दूसरी है वास्तविक मेलजोल और साथ रहने की इच्छा. एक अखंड रूप में पाई गई विरासत के मूल्यों को कायम रखने की दृढ़ इच्छाशक्ति ही राष्ट्र का आधार है.
पहले का संबंध अतीत से तो दूसरे का वर्तमान से है. राष्ट्र पूर्वजों के त्याग और समर्पण द्वारा संजोए गए विशाल अतीत और साझी कोशिशों की पराकाष्ठा है. गोलवलकर ने स्मृतियों की समृद्ध विरासत को हिंदुत्व में विसर्जित कर दिया तथा मेलजोल और साथ रहने की इच्छा के लिए इसी को कसौटी बना दिया.
बीसवीं सदी में राष्ट्रीयता का एक अनूठा प्रयोग सोवियत संघ ने किया. कई जातियों को साथ लाकर एक सामूहिक राष्ट्रीयता को विकसित करने का प्रयास किया गया.
मार्क्सवाद के लिए राष्ट्र एक गैरवाजिब मसला था. यह विचारधारा अंतरराष्ट्रीयता की समर्थक थी. जाहिर था कि भिन्न भिन्न पहचान को धारण करने वाली जातियों के लिए संघीय ढांचे में राष्ट्रीयता एक बड़ी समस्या बनने वाली थी. लेनिन ने इस समस्या को सुलझाने के लिए स्टालिन को नियुक्त किया. स्टालिन ने कई व्याख्यानों और बैठकों में इस पर अपने विचार रखे. उन्होंने राष्ट्र होने के लिए भाषा, आवासभूमि, आर्थिक जीवन तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को आवश्यक माना. स्टालिन के अनुसार जनता जब इन तत्वों को साझे तौर पर अपनाकर एक स्थिर समुदाय बना लेती है तब उसमें एक राष्ट्र की अभिव्यक्ति झलकने लगती है.
“राष्ट्र ऐतिहासिक प्रक्रिया में उपजी साझी भाषा, आवासभूमि, आर्थिक जीवन तथा संस्कृति में अभिव्यक्त जनता का स्थिर समुदाय है जिससे उसकी मनोवैज्ञानिक बनावट झलकती है.” – जोसेफ स्तालिन, मार्क्सिज्म ऐंड द नेशनल ऐंड कॉलोनियल क्वेश्चन.
पितृभूमि जहां वर्चस्व और सत्ता का वाहक है वहीं मातृभूमि एक भावनात्मक विषय है. देश से भावनात्मक लगाव को दर्शाने के लिए जन्मभूमि को जननी मान लेना लाजिमी था. यही कारण रहा कि सावरकर की पितृभूमि गोलवलकर के यहां आकर मातृभूमि में परिणत हो गई.
राष्ट्र के लिए गोलवलकर द्वारा प्रस्तावित 5 तत्त्वों में से सबसे ज्यादा समस्या किसी ने खड़ी की तो वह थी जातीय और धार्मिक. जाति का जिस अर्थ में प्रयोग किया गया वह नस्ल के ज्यादा नजदीक है. गौतम के न्यायसूत्र का हवाला देकर उन्होंने कहा कि ‘समानप्रवात्मिका जातिः.’ अगर समान उत्पत्ति से ही जाति तय होगी तो नस्ल और एथिनिसिटी का मसला भी उठ खड़ा होगा. श्रीलंका में तमिल समस्या बुनियादी तौर पर एथिनिसिटी की समस्या ही है. सत्ता उनका दमन कर सकती है लेकिन सवाल तो बना ही रहेगा.
देश और जाति को स्पष्ट करने के लिए गोलवलकर ने यहूदियों का उदाहरण दिया है. हिटलर के सफाई अभियान के बाद भी यहूदियों ने अपनी जाति, धर्म, संस्कृति तथा भाषा को बचाए रखा. उनके राष्ट्र बनने में अगर कुछ बाधक था तो देश या भौगोलिक क्षेत्र. देश के मिलते ही यहूदियों की साथ रहने की इच्छा बलवती हुई. फिलीस्तीन की धरती पर उन्होंने हिब्रू राष्ट्र को पुनर्निर्मित करने का काम किया. कुछ इन्हीं अर्थों में बेनेडिक्ट ऐंडरसन ने राष्ट्र को कल्पित समुदाय माना है. वह हमें प्रत्यक्ष भले न दिखे किंतु चेतना के स्तर पर वह कभी न कभी अभिव्यक्त होती जरूर है.
“राष्ट्र एक कल्पित राजनीतिक समुदाय है. यह कल्पित है क्योंकि छोटी से छोटी जाति के सदस्य भी अपने सभी साथी सदस्यों से न मिल सकेंगे न उनके बारे में जान सकेंगे. उनके बारे में सुन भी न सकेंगे. फिर भी हर किसी के मन में आपसी जुड़ाव का भाव बना रहता है.” – बेनेडिक्ट ऐंडरसन, इमैजिंड कम्युनिटीज़
शायद जाति और धर्म पर ज्यादा जोर देने के कारण ही गोलवलकर ने राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता आर्थिक तंत्र को तरजीह नहीं दी. एक कारण संघ की विचारधारा का मार्क्सवादी और समाजवादी विचारधारा से विरोध भी हो सकता है. मार्क्सवाद के तहत आर्थिक संबंध बुनियादी भूमिका निभाते हैं. स्तालिन की परिभाषा में से आर्थिक जीवन निकालकर जाति और धर्म जोड़ दिया गया. बाकी बातें वैसे ही बनी रहीं. इस कदम ने राष्ट्रीयता को एकीकृत करने की बजाए एकांगी और एकरूप बनाया.
गोलवलकर द्वारा धर्म को राष्ट्र की परिभाषा में शामिल किया जाना उनके इस्लाम विरोध का परिणाम भी माना जाता है. खुशवंत सिंह मानते हैं कि गोलवलकर की सोच सावरकर से प्रभावित थी. दोनों ने जाति व्यवस्था का समर्थन किया. हिटलर द्वारा लाखों यहूदियों को गैस चैंबर में मार दिए जाने को सही ठहराया. ज़ियोनिज़्म (जिसके सफल होने पर इजराइल की स्थापना हुई थी) का समर्थन किया. इस्लामोफोबिया धीरे-धीरे हिंदुत्व का अंदरूनी मसला बनता गया. गोलवलकर का राष्ट्र चिंतन अकादमिक या सांस्कृतिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक चिंतन है. हिंदुस्थान में धार्मिक विश्वास को राष्ट्रीयता का पैमाना बनाया जाना उसके अपने ही नागरिकों को उससे दूर कर दिया. यह बात गोलवलकर अच्छी तरह समझते थे. अलगाव की प्रवृत्ति को उन्होंने बढ़ावा भले न दिया हो लेकिन रोकने की कोशिश भी नहीं की.
बीसवीं सदी के आरंभ में ही रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद को मानवतावाद के रास्ते में एक बड़ी बाधा बताया. उन्होंने उसके खतरनाक राजनीतिक मंशा की पहचान कर ली थी. आज जब हम तमाम मानवतावादी सवालों से जूझ रहे समाज में राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर आक्रोशित होते देखते हैं तब टैगोर की बात समझ आती है. हालात आज भी कुछ बहुत ज्यादा बदले नहीं लगते.
“राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा संकट है. यह विशेष बात है, जो सालों से भारत की समस्याओं का कारण रही है. हम एक ऐसे राष्ट्र द्वारा शासित व उसके प्रभुत्व में रहे हैं, जिसकी अभिव्यक्ति पूरी तरह राजनीतिक रही है. हमने अतीत की विरासत के बावजूद अपनी नियति के राजनीतिक स्वरूप को स्वरूप को स्वीकार करने के लिए विवश कर लिया है.” – रबीन्द्रनाथ टैगोर, नेशनलिज़्म
राष्ट्रवाद के बारे में होमी भाभा मानते हैं कि राष्ट्र को या तो राजसत्ता के औजार के रूप में पढ़ा गया या आदर्शवादी यूटोपिया के तौर पर. स्टालिन ने इसे राजसत्ता के औजार के रूप में पढ़ा तो गोलवलकर ने दोनों के रूपों में. हिंदुस्थान अवधारणा के स्तर पर यूटोपिया है तो मंशा के तौर पर राजसत्ता का औजार. हिंदुत्व की अवधारणा ने एक वर्ग को जानबूझकर राष्ट्र के मुहावरे से बाहर कर दिया. जाति अगर ‘समानप्रसवात्मिका’ है तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया में भी जातियों का जन्म होता है. एक समावेशी राष्ट्र के लिए सामाजिक विकास की प्रक्रिया ज्यादा अहम होनी चाहिए.
गोलवलकर के राष्ट्रवाद ने टकराव को बढ़ावा दिया. हिंदुस्थान में हिंदू होना राष्ट्रवादी और देशभक्त होने का पैमाना बन गया. सावरकर और गोलवलकर दोनों की विचारधारा का आधार वेद था. वेदों में वर्णव्यवस्था भी कर्म आधारित थी. बाद में जन्म आधारित हो गई. ठीक वैसे ही हिंदुत्व की अवधारणा का भी पराभव हुआ. राष्ट्र का मूल्य पीछे चला गया. अब राष्ट्रवाद की कीमत लगाई जाने लगी. कहते हैं किसी भी विचारधारा का सबसे बड़ा दुश्मन उसके वे समर्थक होते हैं जिन्हें उस विचारधारा के मूल्य से कुछ लेना देना नहीं होता. केवल पर्ची कटाकर या किसी खाल कुल में जन्म लेकर ही वे उसके वारिस बन बैठते हैं. फिर वे उन मूल्यों के ले मरने से ज्यादा मारने पर आमादा हो उठते हैं. कुछ तो खास बात है कि भारत में राष्ट्रवाद बिना हिंसा और मारपीट के साबित होता ही नहीं.
आजादी की लड़ाई के दौरान राष्ट्रवादियों का दल ‘गरम’ माना गया. श्री अरविंद घोष इस राष्ट्रवाद के पुरोधा रहे. गरम और नरम दलों का वैचारिक टकराव सतह पर आ चुका था. 1907 में सूरत अधिवेशन के दौरान दोनों दलों में जमकर मारपीट हुई. अधिवेशन अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दिया गया. इससे सबसे ज्यादा अंग्रेज प्रसन्न हुए. लॉर्ड मिंटो ने इसे अपनी एक बड़ी जीत बताई.
अभी देश में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर जो माहौल बन गया है वह चिंता का विषय है. चिंता तब और भी बढ़ जाती है जब एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार उसी पैमाने पर अपने नागरिकों को तौलने लगती है. विचार धारण करने की चीज होती है थोपने की नहीं. अवधारणाएँ शाश्वत हों यह जरूरी नहीं. समय की माँग पर उन्हें बदलना जरूरी हो जाता है. अगर किसी में बदलने की शक्ति नहीं होगी तो उसका मिटना तय है.
गोलवलकर के हिंदुस्थान राष्ट्र की अवधारणा ऐसी ही अवधारणा है. इसे भी बदलना होगा. यह संकट का समय है. यह संकट स्वाभाविक नहीं है बल्कि जानबूझकर पैदा किया गया है. अब समय है कि हम राष्ट्र संबंधी अन्य अवधारणाओं पर भी विचार करें. ‘वाद’ न सावरकर को पसंद था न गोलवलकर को. इस वाद के विवाद को परे रखकर हमें अन्य विचारों से भी संवाद करने की जरूरत है. किसी राजनीतिक व्यक्ति को याद करने का सबसे अच्छा तरीका, उसके विचारों पर खूब विचार हो. हमने आज वही किया है.
‘दी लल्लनटॉप’ के रीडर अजीत कुमार
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