धर्म परिवर्तन का उद्देश्य
बाबा साहब द्वारा लिखित तथा आदरणीय विमल कीर्ति जी द्वारा अनुवादित सन् 1978 में प्रकाशित पुस्तक ‘दलित वर्ग को धर्मान्तर की आवश्यकता क्यों है ?
को आधार मानकर यह पुस्तिका लिखी गई है।
बाहरी शक्ति प्राप्त करनी है, इस निश्चय को क्रियान्वित करने के लिए बाबा साहब ने 14 अक्तूबर सन् 1956 को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया था।
किसी भी विद्वान और विशेषकर वकील को अपने किसी भी मामले में सफल होने के लिए उसे अपने लक्ष्य को नही भूलना चाहिए। सबसे अच्छा रास्ता वही होता है, जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके। किसी भी रमणीय सुन्दर रास्ते को अच्छा नही कहा जा सकता यदि वह लक्ष्य तक नही पहुंचाता है। बाबा साहब एक महान विद्वान ही नही उच्च कोटि के बैरिस्टर भी थे। अतः 1956 में जब उन्होने धर्म-परिवर्तन के लिए पूर्व निश्चित लक्ष्य ‘बाहरी शक्ति प्रदान करना’ अर्थात किसी भी बाहरी समाज की शक्ति प्राप्त करने को सामने रखा था। तदनुसार उन्होंने सोचना प्रारम्भ किया कि हिन्दू समाज के अलावा किस समाज की शक्ति इस देश में है जिसे प्राप्त करके दलित वर्ग के लोग अत्याचारों से बच सकें और सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें। उन्होंने पाया कि इस देश में न तो ईसाई समाज की शक्ति है, न बौद्ध समाज की और न इस्लामी समाज की। सन् 1947 के देश विभाजन के बाद दूसरों की तरह मुसलमानों की शक्ति भी हमारे देश में न के बराबर ही रह गई थी। अर्थात हमारे देश में किसी अन्य समाज की शक्ति नहीं थी जिसे पाकर अत्याचारों से मुक्ति मिल सकती। सम्यक् कल्पना कीजिए कि एक कमरे के बीचोबीच एक कमज़ोर जर्जर मरीज़ गिरने वाला है और उस कमरे में स्तम्भ आदि कुछ भी नहीं है जिसका वह सहारा ले सके। तब वह क्या करेगा? वह सहारा लेने के लिए उस कमरे की किसी दीवार की तरफ़ ही बढ़ेगा। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब ने भी जब देखा कि इस कमरा रूपी देश में कोई सहारा नहीं है तब उनको अपने कमज़ोर समाज को गिरने से बचाने के लिए दीवारों की ओर जाना पड़ा। अर्थात जब उन्होने पाया कि इस देश में कोई भी ऐसा समाज नहीं रही है जिसकी शक्ति में विलीन होकर दलित वर्ग को उत्पीड़न एवं अत्याचारों से बचाया जा सके तब उन्होंनं हमारे देश के निकट के देशों की ओर दृष्टि डाली कि क्या उनमें कोई ऐसा समाज रहता है जिसकी शक्ति पाकर लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। उन्होंने पाया कि चीन, जापान, लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में बौद्ध धर्मावलम्बी समाज है। अतः उनकी शक्ति अथात् ‘बाहरी शक्ति’ पाने के लिए बौद्ध धर्म ही अपनाना चाहिये और उन्होंने ऐसा ही किया। उन दिनों किसी अन्य धर्म को अपना कर लक्ष्य की प्राप्ति में दिक्क़त हो सकती थी और बौद्ध धर्म को अपनाकर ही लक्ष्य की प्राप्ति आसान मालूम पड़ती थी। इसीलिए बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसमें ज़रा भी सन्देह की गुंजाइश नहीं है।
पाकिस्तान बनने के बाद सन् 1956 में बाबा साहब ने जब धर्म-परिवर्तन किया था, उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दूओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी। यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव-गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबा साहब 1956 में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़्माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात् भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान् कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात कि बाबा साहब अम्बेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह परम औषधि देकर केवल एक महीना 22 दिन ही 6 दिसम्बर सन्1956 को परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबा साहब अम्बेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैंने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित हैं, जो परम औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक़ भी आयी या रिएक्शन कर रही है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आ रही है।
बाबा साहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी परम औषधि हमने आज से लगभग बत्तीस वर्ष पूर्व लेनी प्रारम्भ की थी उसने हमारे रोग को कितना ठीक किया? ठीक किया भी है या नहीं? अथवा कहीं यह औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात् उल्टी तो नहीं पड़ रही है? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज 32 वर्ष बाद भी नहीं आया है? निश्चित रूप से हमें मुल्यांकन करना चाहिए।
बोद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफ़ल हुए हैं? इस सम्बन्ध में बाबा साहब द्वारा निर्धरित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति प्राप्त करना होना चाहिए। इस प्रकार दलित वर्ग द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग में बाहरी शक्ति कितनी आई? कुछ आई भी या बिल्कुल भी नहीं आई? या इस धर्म को अपनाने से हमारी मुल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है?
हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों के अन्दर किसी प्रकार की कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अभी तक अच्छे पढ़े लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया। अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल जनसंख्या की मुश्किल से 20 प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो 20 प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे 80 प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि ये ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और 80 प्रतिशत चमार जो बौद्ध नहीं बने हैं वे कहते हैं कि ये बुद्ध-चुद्ध कहां से बने हैं?
इस प्रकार पहले जो चमारों की भी शक्ति थी वह भी 20 और 80 में ऐसा भी नहीं रहा क्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना।
यह तो रहा समग्र समाज का विश्लेषण। अब हम उन दलितों की स्थिति पर गौर करें जिन्होंने बौद्ध अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध जो हैं ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नव बौद्धों में आ गई हो और दोनों मिलकर एक ताक़तवर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नव बौद्धों की मदद में अपनी कोई रुचि नहीं दिखाई है। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहें तो कैसे करेंगे? ज़्यादा से ज़्यादा भारत सरकार को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्धों पर अत्याचार मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध-पत्र से काम चल जाएगा और उसकी फ़ोटा स्टेट कापियां कराके बौद्ध उन्हें लट्ठ मारने वालों या जि़न्दा जला देने वालों को दिखाकर बच जाएंगे? या जहां उन्हें गोलियों से उड़ा देने वाली बात होती है तो क्या वे दूसरे देशों के विरोध-पत्र की कापी गोली मारने वाले को दिखाकर गोली से बच जाऐंगे? इस प्रकार बाहरी देशों की मदद से तो इस देश में हम असहाय लोगों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही हुआ है।
उनरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का अपना कर हमने कुछ पाने के बजाए कुछ खोया है और वही खोया है जिसको पाने के लिए यह अपनाया गया था। इस प्रकार बौद्ध धर्म दलित वर्ग के उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण रूप से विफल रहा है।
प्रश्न किया जा सकता है क्या डा. अम्बेडकर ने ग़लत सोचा था? क्या उनकी बुद्धि में ये सब बातें नहीं आई होगी? इस सम्बन्ध में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि एक तो कमी किसी भी इन्सान से रह सकती है। दूसरे कुछ समस्यायें ऐसी होती हैं जो केवल सोचने मात्र से ही हल नहीं होती हैं बल्कि उनका क्रियान्वित होते देखना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। बाबा साहब ने जो कुछ भी सोचा था वह ठीक ही सोचा था लेकिन जिस पर कोई नैतिक दायित्व हो और वह उसे पूरा न करे तो क्या उन में सोचने वाले की गलती मानी जाएगी? बौद्ध देशों ने अपनी जि़म्मेदारी नहीं निभाई और अब उनकी मदद से कुछ होने वाला भी नहीं है। क्यांेकि हमारी समस्या केवल राजनैतिक नहीं है, वरन सामाजिक भी है और वह अधिक विकट है। यदि हमारे सामने सामाजिक समस्या न होती तब तो संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में बौद्ध देशों का सहारा ले सकते थे और अपनी राजनीतिक गुत्थी को सुलझा सकते थे। किन्तु हमें तो पहले सामाजिक शक्ति प्राप्त करनी है, जिससे कि आए दिन होने वाले अत्याचारों से बचा जा सके।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं। बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी उन पर जगह-जगह जुल्म और अत्याचार होते हैं। इन अत्याचारों से कैसे बचा जाए यही दलित वर्ग की मूल समस्या है। इस महाव्याधि से मुक्ति दिलाने के लिए ही बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि दी थी जो कामयाब नहीं हुई बल्कि उल्टी पड़ गई। अर्थात् दलित समाज बौद्ध और अबौद्ध दो ख़ेमों में बंटकर और भी कमज़ोर हो गया है। आप कहेंगे कि क्या बाबा साहब इसके लिए दोषी हैं? नहीं! बल्कि हमारे शरीर को यह परमौषधि माफ़िक़ ही नहीं आई।
इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि बौद्ध धर्म से अब हमारा काम चलने वाला नहीं है, अब तो इस समाज को भला चंगा तगड़ा बनाने के लिए, अतिरिक्त बाहरी शक्ति प्राप्त करने के लिए दूसरी दवाई ही लेनी चाहिए।
कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबा साहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्धहस्त डाक्टर नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाए? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं-कहा जाता है कि जिन डाक्टरों ने पेंसिलीन नामक परमौषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा की थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक़ आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक़ नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है।
प्रत्येक डाक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक़ भी आती है या नहीं यदि उसको माफ़िक़ नहीं आती है तो डाक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है।
बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही हैं बौद्ध धर्म द्वारा 20 प्रतिशत और 80 प्रतिशत में बंटकर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डाक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ा आया और वह डाक्टर उसकी परीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इन्जेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इन्जेक्शन उस मरीज़ के रिएक्शन करता है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आता है जिससे कि मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डाक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डाक्टर इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे अतः पेंसिलीन लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि ये बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात् अपने बड़े डाक्टर की बात पर अड़े हुए हैं या उलटे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा?
यही हालत हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिससे परमौषधि समझकर बाबा साहब अम्बेडकर हमें देकर केवल 1 माह 22 दिन के बाद परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक़ नहीं आ रही है क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अथवा जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की जि़द या आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरूक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरू किया है और उसे अपनाना शुरू किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं नहीं वही बाबा बाहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म ही अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इनके बौद्ध धर्म अपनाने से इनका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है। इस बात को बाबा साहब क अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबा साहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबा साहब द्वारा निर्धारित धर्मान्तर का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन् भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसीके लिए हमें धर्म-परिवर्तन करना है।
अब बाबा साहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करें और इस बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे कि हम अपने धर्मान्तर के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
बाबा साहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल क़ायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात् बौद्ध धर्म ही दिया जाए, फ़ायदा हो या न हो। इसी लिए एक समय पर उन्होंने कहा था कि-‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आपको गोली मारकर आत्महत्या कर लूंगा।’ यह थी उनकी भीशण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबा साहब होते तो निश्चय ही बौद्ध घर्म छोड़ कोई अन्य धर्म को अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबा साहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हम को ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर अन्य कोई धर्म अपनाना होगा।
पाकिस्तान बनने के बाद सन् 1956 में बाबा साहब ने जब धर्म-परिवर्तन किया था, उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दूओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी। यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव-गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबा साहब 1956 में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़्माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात् भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान् कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात कि बाबा साहब अम्बेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह परम औषधि देकर केवल एक महीना 22 दिन ही 6 दिसम्बर सन्1956 को परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबा साहब अम्बेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैंने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित हैं, जो परम औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक़ भी आयी या रिएक्शन कर रही है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आ रही है।
बाबा साहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी परम औषधि हमने आज से लगभग बत्तीस वर्ष पूर्व लेनी प्रारम्भ की थी उसने हमारे रोग को कितना ठीक किया? ठीक किया भी है या नहीं? अथवा कहीं यह औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात् उल्टी तो नहीं पड़ रही है? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज 32 वर्ष बाद भी नहीं आया है? निश्चित रूप से हमें मुल्यांकन करना चाहिए।
बोद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफ़ल हुए हैं? इस सम्बन्ध में बाबा साहब द्वारा निर्धरित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति प्राप्त करना होना चाहिए। इस प्रकार दलित वर्ग द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग में बाहरी शक्ति कितनी आई? कुछ आई भी या बिल्कुल भी नहीं आई? या इस धर्म को अपनाने से हमारी मुल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है?
हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों के अन्दर किसी प्रकार की कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अभी तक अच्छे पढ़े लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया। अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल जनसंख्या की मुश्किल से 20 प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो 20 प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे 80 प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि ये ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और 80 प्रतिशत चमार जो बौद्ध नहीं बने हैं वे कहते हैं कि ये बुद्ध-चुद्ध कहां से बने हैं?
इस प्रकार पहले जो चमारों की भी शक्ति थी वह भी 20 और 80 में ऐसा भी नहीं रहा क्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना।
यह तो रहा समग्र समाज का विश्लेषण। अब हम उन दलितों की स्थिति पर गौर करें जिन्होंने बौद्ध अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध जो हैं ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नव बौद्धों में आ गई हो और दोनों मिलकर एक ताक़तवर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नव बौद्धों की मदद में अपनी कोई रुचि नहीं दिखाई है। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहें तो कैसे करेंगे? ज़्यादा से ज़्यादा भारत सरकार को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्धों पर अत्याचार मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध-पत्र से काम चल जाएगा और उसकी फ़ोटा स्टेट कापियां कराके बौद्ध उन्हें लट्ठ मारने वालों या जि़न्दा जला देने वालों को दिखाकर बच जाएंगे? या जहां उन्हें गोलियों से उड़ा देने वाली बात होती है तो क्या वे दूसरे देशों के विरोध-पत्र की कापी गोली मारने वाले को दिखाकर गोली से बच जाऐंगे? इस प्रकार बाहरी देशों की मदद से तो इस देश में हम असहाय लोगों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही हुआ है।
उनरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का अपना कर हमने कुछ पाने के बजाए कुछ खोया है और वही खोया है जिसको पाने के लिए यह अपनाया गया था। इस प्रकार बौद्ध धर्म दलित वर्ग के उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण रूप से विफल रहा है।
प्रश्न किया जा सकता है क्या डा. अम्बेडकर ने ग़लत सोचा था? क्या उनकी बुद्धि में ये सब बातें नहीं आई होगी? इस सम्बन्ध में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि एक तो कमी किसी भी इन्सान से रह सकती है। दूसरे कुछ समस्यायें ऐसी होती हैं जो केवल सोचने मात्र से ही हल नहीं होती हैं बल्कि उनका क्रियान्वित होते देखना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। बाबा साहब ने जो कुछ भी सोचा था वह ठीक ही सोचा था लेकिन जिस पर कोई नैतिक दायित्व हो और वह उसे पूरा न करे तो क्या उन में सोचने वाले की गलती मानी जाएगी? बौद्ध देशों ने अपनी जि़म्मेदारी नहीं निभाई और अब उनकी मदद से कुछ होने वाला भी नहीं है। क्यांेकि हमारी समस्या केवल राजनैतिक नहीं है, वरन सामाजिक भी है और वह अधिक विकट है। यदि हमारे सामने सामाजिक समस्या न होती तब तो संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में बौद्ध देशों का सहारा ले सकते थे और अपनी राजनीतिक गुत्थी को सुलझा सकते थे। किन्तु हमें तो पहले सामाजिक शक्ति प्राप्त करनी है, जिससे कि आए दिन होने वाले अत्याचारों से बचा जा सके।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं। बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी उन पर जगह-जगह जुल्म और अत्याचार होते हैं। इन अत्याचारों से कैसे बचा जाए यही दलित वर्ग की मूल समस्या है। इस महाव्याधि से मुक्ति दिलाने के लिए ही बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि दी थी जो कामयाब नहीं हुई बल्कि उल्टी पड़ गई। अर्थात् दलित समाज बौद्ध और अबौद्ध दो ख़ेमों में बंटकर और भी कमज़ोर हो गया है। आप कहेंगे कि क्या बाबा साहब इसके लिए दोषी हैं? नहीं! बल्कि हमारे शरीर को यह परमौषधि माफ़िक़ ही नहीं आई।
इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि बौद्ध धर्म से अब हमारा काम चलने वाला नहीं है, अब तो इस समाज को भला चंगा तगड़ा बनाने के लिए, अतिरिक्त बाहरी शक्ति प्राप्त करने के लिए दूसरी दवाई ही लेनी चाहिए।
कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबा साहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्धहस्त डाक्टर नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाए? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं-कहा जाता है कि जिन डाक्टरों ने पेंसिलीन नामक परमौषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा की थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक़ आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक़ नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है।
प्रत्येक डाक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक़ भी आती है या नहीं यदि उसको माफ़िक़ नहीं आती है तो डाक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है।
बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही हैं बौद्ध धर्म द्वारा 20 प्रतिशत और 80 प्रतिशत में बंटकर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डाक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ा आया और वह डाक्टर उसकी परीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इन्जेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इन्जेक्शन उस मरीज़ के रिएक्शन करता है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आता है जिससे कि मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डाक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डाक्टर इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे अतः पेंसिलीन लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि ये बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात् अपने बड़े डाक्टर की बात पर अड़े हुए हैं या उलटे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा?
यही हालत हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिससे परमौषधि समझकर बाबा साहब अम्बेडकर हमें देकर केवल 1 माह 22 दिन के बाद परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक़ नहीं आ रही है क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अथवा जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की जि़द या आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरूक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरू किया है और उसे अपनाना शुरू किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं नहीं वही बाबा बाहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म ही अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इनके बौद्ध धर्म अपनाने से इनका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है। इस बात को बाबा साहब क अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबा साहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबा साहब द्वारा निर्धारित धर्मान्तर का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन् भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसीके लिए हमें धर्म-परिवर्तन करना है।
अब बाबा साहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करें और इस बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे कि हम अपने धर्मान्तर के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
बाबा साहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल क़ायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात् बौद्ध धर्म ही दिया जाए, फ़ायदा हो या न हो। इसी लिए एक समय पर उन्होंने कहा था कि-‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आपको गोली मारकर आत्महत्या कर लूंगा।’ यह थी उनकी भीशण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबा साहब होते तो निश्चय ही बौद्ध घर्म छोड़ कोई अन्य धर्म को अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबा साहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हम को ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर अन्य कोई धर्म अपनाना होगा।
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