दशकों पहले स्वामी दयानद गंगा नदी के किनारे रहते थे। वहां वह चिंतन करते थे। वहां अन्य साधु रहते थे। वह उनकी इस साधना से ईर्ष्या करते थे। उन्हें लगता था कि दयानंद उनके प्रभाव को कम न कर दें।
इस बात से नाराज होकर सभी साधुओं ने दयानंद जी को भला-बुरा कहा। लेकिन उन्होंने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। अब वह साधु रोज उनकी निंदा करते और वो कुछ न कहते।
एक दिन जब स्वामी दयानंद भोजन करके अपने स्थान से उठ रहे थे तभी एक सेठ ताजे फल लेकर आया। स्वामी जी ने ये फल उन निंदा करने वाले साधुओं के लिए भिजवा दिए।
यह सब घटनाक्रम के बाद वह साधु बहुत लज्जित हुए। वह स्वामी दयानंद के पास गए और उसे अपने बर्ताब के लिए क्षमा याचना की।
यदि आप सहिष्णु रहते हैं तो आप कठोर लोगों का ह्दय परिवर्तन कर सकने की क्षमता रखते हैं।
सहिष्णुता के लिए जरूरी है धैर्य और विनम्रता
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के दामाद जेठाजी अत्यंत विनम्र और सहनशील व्यक्ति थे। वे गुरु अमरदास जी की बहुत सेवा करते थे। एक दिन उन्होंने जेठा जी और दूसरे दामाद रामा को एक चबूतरा बनाने के लिए कहा। दोनों ने चबूतरा बना दिया।
चबूतरे को देखकर गुरुजी बोले, 'यह सही नहीं है। दुबारा से बनाओ।' इस तरह दुबारा बनाने पर भी जब उन्हें पसंद नहीं आया तो उन्होंने इसे बार-बार बनवाया। ऐसा होने पर रामा ने अपना धैर्य खो दिया और उन्हें गुस्सा आ गया।।
रामा ने गुरुजी से कहा, 'आप बूढ़े हो गए हैं। आपको स्वयं ही नहीं मालूम यह कैसे बनाना है।' लेकिन जेठा जी बोले, 'गुरुजी माफ कीजिएगा आप फिर से बताएं यह चबूतरा कैसे बनाना है।
मुझे आपकी बात समझ नहीं आ रही है ऐसे में यह चबूतरा कैसा बनाना है यह तय नहीं कर पा रहे हैं।' गुरुजी जेठा के धैर्य और विनम्रता के कायल हो गए। यही जेठा जी आगे चलकर सिखो के चौथे गुरु रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए।
धैर्य और विनम्रता के बल पर बड़े से बड़े काम आसान किए जा सकते हैं। इसलिए इन भावों को अपने अंदर आत्मसात करना चाहिए।
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