(र्इसा पूर्व दूसरी तथा पष्चातवर्ती चौथी षताब्दी)
प्रमुख सम्प्रदायों (षैव, शाक्त तथा वैष्णव) का उ˜व
ऋग्वैदिक काल के अन्त मेंं वैदिक देवता रुæ का महत्व बढ़ना प्रारम्भ हुआ। श्वेताष्वतरोपनिषद के अनुसार रुæ को पहली बार षिव कहा गया और विष्व का जनक, पालक और संहारक बताया गया और उसके अनुयायियों द्वारा भäपिूर्वक उसकी पूजा प्रारम्भ की गयी। इस काल मेंं जनसाधारण में अपने आप को एक धार्मिक संस्था मेंं परिवर्तित करने की प्रवृत्ति का विकसित होना स्वयंसिद्ध है। यधपि शैव और वैष्णव मतावलमिबयों के समूहों ने एक आकार लेना प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु सही अथोर्ं मेंं बौद्ध और जैन सम्प्रदायाें ने शैव और वैष्णव मतावलंिबयों को आत्यनितक रूप से एक धार्मिक संस्था के रूप मेंं संगठित होने का मार्ग प्रषस्त किया। अलग-अलग पंथों के इन श्रद्धालुओं के स्थानीय संगठन नये सम्प्रदायों के विस्तार मेंं प्रमुख घटक प्रतीत होते हैं। इस समय तक आसितक योगियों और तपसिवयों की संख्या अत्यन्त कम है किन्तु शैव सम्प्रदाय के संन्यासियों की पाषुपत के नाम से बहुतायत मेंं उपसिथति सिद्ध होती है।
र्इसा से 185 वर्ष पूर्व मौर्य साम्राज्य के पतन और र्इस्वी संवत 320 में गुप्त साम्राज्य के उत्थान अर्थात 505 वषोर्ं के मध्य एक काफी बड़ा परिवर्तन हुआ। भारत की तत्कालीन सुदूर पषिचमी सीमा पर निरन्तर होने वाले आक्रमण हुए और काफी बड़ा भू-भाग आक्रमणकारियों ने जीत लिया। वे जीते हुए भाग न केवल पषिचमी आक्रान्ताओं बल्की रोमन साम्राज्य सहित समुæी व्यापार करने वाले अन्य देषाें के लियेे भी भारत मेंं आने के लियेे ऐसे द्वार सिद्ध हुए जैसे पहले कभी नहींं था। नये सम्पकोर्ं का प्रभाव कला और वास्तु पर सुस्पष्ट है। पाकिस्तान मेंं रावलपिण्डी के समीप तक्षषिला मेंं सबसे पुराने मनिदर मेंं हुए उत्खनन से प्रकट हुआ है कि, र्इसा से 100 वर्ष पूर्व भवन निर्माण की गांधार शैली का विकास इस क्षेत्र मेंं हुआ और इसमेंं रोम तथा हेलेना की मूल भवन निर्माण कला का समावेष प्रमुखत: बौद्ध विहारों मेंं किया गया। इससे पूर्व या तो मनिदरों का असितत्व नहीं था, क्योंकि उनका कोर्इ अवशेष ज्ञात नहींं हुआ है फिर भी साहितियक साक्ष्य उनका असितत्व बताती है, अत: संभव है कि, तब तक हिन्दू मनिदर लकड़ी के बनाये जाते रहे होंगे।
गुप्त साम्राज्य के आरम्भ मेंं पुराने वैदिक धर्म के साथ एक नये सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ और हिन्दुत्व की दो मुख्य शाखाओंं को पूर्ण पहचान प्राप्त हुयी। वैष्णव सम्प्रदाय को गुप्त वंष के सम्राटों का समर्थन प्राप्त था और उन्होंने परमभागवत अर्थात विष्णु के अनन्य भä की उपाधि धारण की। इस काल मेंं विष्णु के अनेक मनिदर बने और विष्णु के अवतारों को काफी मान्यता मिली। तथापि विष्णु के 10 अवतारों (मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परषुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और भावी अवतार कल्की) मेंं से केवल दो अवतारों की पूजा अधिक हुयी। ये दो अवतार महाभारत के नायक Ñष्ण और पृथ्वी के उद्धारक वराह के थे। इन दोनों अवतारों के गुप्तकाल के अनेक आकर्षक चित्रप्रतिरूप प्राप्त हुए हैंं।
शैव सम्प्रदाय भी भारतीय धार्मिक जीवन मेंं एक उभरती हुयी शä थि। दूसरी शताबिद के लकुलीष द्वारा प्रवर्तित पाषुपत योगियों का असितत्व भी 5वीं शताबिद के अंकन और षिलालेखों द्वारा अनुमोदित है और हिन्दुत्व के प्रारमिभक साम्प्रदायिक और धार्मिक अनुक्रम की कड़ी मेंं से एक है। र्इस्वी सन 100 के लगभग कुषाण कालीन सिक्कों पर षिव के पुत्र स्कन्द (जिसे कार्तिकेय अर्थात युद्ध का देवता भी कहा जाता है, की छवि अंकित होना शैव सम्प्रदाय का ही प्रतिनिधित्व करती है। षिव के दूसरे पुत्र गणेष जो व्यापारिक और साहितियक उपक्रमों का संरक्षक देवता है, का 5़वीं शताबिद तक प्राकटय नहींंं हुआ। इस काल मेंं सूर्य बहुत महत्वपूर्ण देवता है। यधपि आज सूर्य पूजा का वह रूप नहीं रहा और अधिकांष हिन्दुओं द्वारा उसकी बहुत कम पूजा अर्चना की जाती है किन्तु उस काल मेंं न केवल पूजा अर्चना वरन अनेक सूर्य मनिदरों का निर्माण होना उसके महत्त्व और सम्मान का प्रतीक है। सूर्य उपासना की धारणा और उसका मूल कारण तो वैदिक ऋचाएं हैं, किन्तु बाद मेंं र्इरानी प्रभाव के आवरण मेंं सूर्य उपासना छिप गयी प्रतीत होती है।
इसी काल मेंं अनेक देवियों का महत्त्व भी बढना प्रारम्भ हुआ। हालांकि देवियां हमेषां स्थानीय सम्प्रदायों मेंं लोकप्रिय और पूजित रहीं और वैदिक धर्म मेंं उनकी भूमिका तुलनात्मक दृषिट से कम महत्त्व की रही। विष्णु की भार्या और भाग्य की देवी लक्ष्मी र्इसार्इ संवत प्रारम्भ होने से पूर्व पूजी जाती रही। इसी प्रकार अन्य कर्इ देवियां भी गुप्त काल मेंं असितत्व मेंं थी। लेकिन षिव की पत्नी दुर्गा का महत्त्व चौथी शताबिद मेंं ही बढ़ना प्रारम्भ हुआ और शä सिम्प्रदाय का विकास मध्य काल तक स्थान नहींं पा सका।
हिन्दुत्व के विकास और सांस्Ñतिक पृष्ठभूमि के इतिहास के संबन्ध मेंं चिन्तन करते हैंंं तो न्यायसिद्ध काल की चर्चा अनायास, किन्तु एक आवष्यकता के रूप मेंं सामने आती है। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर हिन्दुत्व का स्रोत तलाष करने के लियेे यह समय वैदिक व पौराणिक काल के बाद हठात उपसिथत होता है जहां से हिन्दुत्व के बीज का अंकुरण दिखार्इ पड़ता है। भारतीय विचारधारा का न्यायसिद्ध काल पहली से दूसरी शताबिद के मध्य कुषाणों के साथ प्रारम्भ हुआ। गौतम द्वारा प्रवर्तित न्यायसूत्र (जो संभवत: र्इसार्इ संवत के प्रारम्भ मेंं असितत्व मेंं आया) और 5वीं शताबिद मेंं न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने न्यायसिद्धान्त की आधारषिला रखी, जो आत्यनितक रूप से तर्क और जानकारी के विषयों से आच्छादित था। बौद्धपंथ मेंं मध्यम मार्ग अथवा शून्यवाद का आविर्भाव इस काल मेंं उदय हुआ और शून्यवाद के प्रबल समर्थक नागाजर्ुन के विचारों को बहुत अधिक मान्यता मिली। हालांकि बौद्ध मत के न्याय सिद्धान्त का वास्तविक और कठोर अथोर्ं मेंं कोर्इ असितत्व नहींं था लेकिन वैचारिक सम्प्रदायों मेंं दार्षनिकता की न्यायिक शैली का असितत्व अवष्य था।
गुप्त साम्राज्य के दौरान, ब्राह्राणवाद एक परिष्Ñत तथा अधिक शालीन रूप मेंं पुनर्जीवित हुआ। भगवान Ñष्ण को मध्य मेंं रखकर और क्रियाओं के कर्म से संन्यास की वकालत करते हुए वासुदेव सम्प्रदाय का वैष्णव मत तथा शैव पंथ भी बौद्ध और जैन पंथों के साथ साथ समृद्ध हुए। बौद्ध धर्म की दोनों शाखाओंं अर्थात महायान और हीनयान ने इस समय काफी उन्नति की। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि बौद्ध सम्प्रदाय मेंं योगाचार शाखा का उदय हुआ, जिसके चौथी शताबिद मेंं असंग और उसका भार्इ वासुबन्धु महान पथ प्रदर्षक थे। पांचवी शताबिद के अन्त मेंं दि³नाग नामक बौद्ध तर्कषास्त्री ने ‘प्रमाणसमुच्चय नामक सत्य ज्ञान के अर्थ का सार लिखा, जो बौद्ध सम्प्रदाय की विचारधारा और उसके आधार के संबन्ध मेंं किया गया कार्य था।
भारतीय दर्षन से संबद्ध महान हसितयां गुप्तकाल के पष्चात 7वीं से 10वीं शताबिद के मध्य हुयीं। तत्समय बौद्ध सम्प्रदाय का उतार और तानित्रक सम्प्रदाय का उदय हो रहा था। एक ऐसी सिथति आयी कि जिसने बौद्ध सम्प्रदाय मेंं भी तन्त्र साधना का अध्याय खोल दिया। काष्मीर मेंं शैव सम्प्रदाय का वर्चस्व दिनोंदिन बढ रहा था और भारत के दक्षिण मेंं वैष्णव मत का प्रचार हो रहा था। महान दार्षनिक और मीमांसक कुमारिल (7वीं शताबिद), प्रभाकर (7-8वीं शताबिद), मण्डन मिश्र (8वीं षताबिद), शालिकनाथ (9वीं शताबिद) और पार्थसारथी मिश्र (10वीं शताबिद) इस कालखण्ड मेंं हुए। फिर भी यह कहा जा सकता है कि, इस काल के महानतम दार्षनिक की उपाधि शंकराचार्य को दी गयी। इन सभी ने गैर सनातनपंथी सम्प्रदायों के विरुद्ध और विषेषतौर पर बौद्ध सम्प्रदाय की आलोचनाओं के विरोध मेंं ब्राह्राणवाद का पक्ष लिया। इस काल मेंं न्याय शाखा के तत्कालीन दार्षनिक वाचस्पति मिश्र, उदयानाचार्य और उडियातकारा के द्वारा ब्राह्राणवाद और बौद्ध सम्प्रदाय के मध्य तार्किक स्तर पर बहस चलती रही।
दर्षन आधारित धार्मिक संक्रानित के इस काल मेंं मनिदरों के निर्माण की एक अनूठी कड़ी है, जिसका उल्लेख अपरिहार्य रूप से आवष्यक हो जाता है। अगले कुछ पृष्ठों में हम इसकी चर्चा करते हैं।
ऋग्वैदिक काल के अन्त मेंं वैदिक देवता रुæ का महत्व बढ़ना प्रारम्भ हुआ। श्वेताष्वतरोपनिषद के अनुसार रुæ को पहली बार षिव कहा गया और विष्व का जनक, पालक और संहारक बताया गया और उसके अनुयायियों द्वारा भäपिूर्वक उसकी पूजा प्रारम्भ की गयी। इस काल मेंं जनसाधारण में अपने आप को एक धार्मिक संस्था मेंं परिवर्तित करने की प्रवृत्ति का विकसित होना स्वयंसिद्ध है। यधपि शैव और वैष्णव मतावलमिबयों के समूहों ने एक आकार लेना प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु सही अथोर्ं मेंं बौद्ध और जैन सम्प्रदायाें ने शैव और वैष्णव मतावलंिबयों को आत्यनितक रूप से एक धार्मिक संस्था के रूप मेंं संगठित होने का मार्ग प्रषस्त किया। अलग-अलग पंथों के इन श्रद्धालुओं के स्थानीय संगठन नये सम्प्रदायों के विस्तार मेंं प्रमुख घटक प्रतीत होते हैं। इस समय तक आसितक योगियों और तपसिवयों की संख्या अत्यन्त कम है किन्तु शैव सम्प्रदाय के संन्यासियों की पाषुपत के नाम से बहुतायत मेंं उपसिथति सिद्ध होती है।
र्इसा से 185 वर्ष पूर्व मौर्य साम्राज्य के पतन और र्इस्वी संवत 320 में गुप्त साम्राज्य के उत्थान अर्थात 505 वषोर्ं के मध्य एक काफी बड़ा परिवर्तन हुआ। भारत की तत्कालीन सुदूर पषिचमी सीमा पर निरन्तर होने वाले आक्रमण हुए और काफी बड़ा भू-भाग आक्रमणकारियों ने जीत लिया। वे जीते हुए भाग न केवल पषिचमी आक्रान्ताओं बल्की रोमन साम्राज्य सहित समुæी व्यापार करने वाले अन्य देषाें के लियेे भी भारत मेंं आने के लियेे ऐसे द्वार सिद्ध हुए जैसे पहले कभी नहींं था। नये सम्पकोर्ं का प्रभाव कला और वास्तु पर सुस्पष्ट है। पाकिस्तान मेंं रावलपिण्डी के समीप तक्षषिला मेंं सबसे पुराने मनिदर मेंं हुए उत्खनन से प्रकट हुआ है कि, र्इसा से 100 वर्ष पूर्व भवन निर्माण की गांधार शैली का विकास इस क्षेत्र मेंं हुआ और इसमेंं रोम तथा हेलेना की मूल भवन निर्माण कला का समावेष प्रमुखत: बौद्ध विहारों मेंं किया गया। इससे पूर्व या तो मनिदरों का असितत्व नहीं था, क्योंकि उनका कोर्इ अवशेष ज्ञात नहींं हुआ है फिर भी साहितियक साक्ष्य उनका असितत्व बताती है, अत: संभव है कि, तब तक हिन्दू मनिदर लकड़ी के बनाये जाते रहे होंगे।
गुप्त साम्राज्य के आरम्भ मेंं पुराने वैदिक धर्म के साथ एक नये सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ और हिन्दुत्व की दो मुख्य शाखाओंं को पूर्ण पहचान प्राप्त हुयी। वैष्णव सम्प्रदाय को गुप्त वंष के सम्राटों का समर्थन प्राप्त था और उन्होंने परमभागवत अर्थात विष्णु के अनन्य भä की उपाधि धारण की। इस काल मेंं विष्णु के अनेक मनिदर बने और विष्णु के अवतारों को काफी मान्यता मिली। तथापि विष्णु के 10 अवतारों (मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परषुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और भावी अवतार कल्की) मेंं से केवल दो अवतारों की पूजा अधिक हुयी। ये दो अवतार महाभारत के नायक Ñष्ण और पृथ्वी के उद्धारक वराह के थे। इन दोनों अवतारों के गुप्तकाल के अनेक आकर्षक चित्रप्रतिरूप प्राप्त हुए हैंं।
शैव सम्प्रदाय भी भारतीय धार्मिक जीवन मेंं एक उभरती हुयी शä थि। दूसरी शताबिद के लकुलीष द्वारा प्रवर्तित पाषुपत योगियों का असितत्व भी 5वीं शताबिद के अंकन और षिलालेखों द्वारा अनुमोदित है और हिन्दुत्व के प्रारमिभक साम्प्रदायिक और धार्मिक अनुक्रम की कड़ी मेंं से एक है। र्इस्वी सन 100 के लगभग कुषाण कालीन सिक्कों पर षिव के पुत्र स्कन्द (जिसे कार्तिकेय अर्थात युद्ध का देवता भी कहा जाता है, की छवि अंकित होना शैव सम्प्रदाय का ही प्रतिनिधित्व करती है। षिव के दूसरे पुत्र गणेष जो व्यापारिक और साहितियक उपक्रमों का संरक्षक देवता है, का 5़वीं शताबिद तक प्राकटय नहींंं हुआ। इस काल मेंं सूर्य बहुत महत्वपूर्ण देवता है। यधपि आज सूर्य पूजा का वह रूप नहीं रहा और अधिकांष हिन्दुओं द्वारा उसकी बहुत कम पूजा अर्चना की जाती है किन्तु उस काल मेंं न केवल पूजा अर्चना वरन अनेक सूर्य मनिदरों का निर्माण होना उसके महत्त्व और सम्मान का प्रतीक है। सूर्य उपासना की धारणा और उसका मूल कारण तो वैदिक ऋचाएं हैं, किन्तु बाद मेंं र्इरानी प्रभाव के आवरण मेंं सूर्य उपासना छिप गयी प्रतीत होती है।
इसी काल मेंं अनेक देवियों का महत्त्व भी बढना प्रारम्भ हुआ। हालांकि देवियां हमेषां स्थानीय सम्प्रदायों मेंं लोकप्रिय और पूजित रहीं और वैदिक धर्म मेंं उनकी भूमिका तुलनात्मक दृषिट से कम महत्त्व की रही। विष्णु की भार्या और भाग्य की देवी लक्ष्मी र्इसार्इ संवत प्रारम्भ होने से पूर्व पूजी जाती रही। इसी प्रकार अन्य कर्इ देवियां भी गुप्त काल मेंं असितत्व मेंं थी। लेकिन षिव की पत्नी दुर्गा का महत्त्व चौथी शताबिद मेंं ही बढ़ना प्रारम्भ हुआ और शä सिम्प्रदाय का विकास मध्य काल तक स्थान नहींं पा सका।
हिन्दुत्व के विकास और सांस्Ñतिक पृष्ठभूमि के इतिहास के संबन्ध मेंं चिन्तन करते हैंंं तो न्यायसिद्ध काल की चर्चा अनायास, किन्तु एक आवष्यकता के रूप मेंं सामने आती है। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर हिन्दुत्व का स्रोत तलाष करने के लियेे यह समय वैदिक व पौराणिक काल के बाद हठात उपसिथत होता है जहां से हिन्दुत्व के बीज का अंकुरण दिखार्इ पड़ता है। भारतीय विचारधारा का न्यायसिद्ध काल पहली से दूसरी शताबिद के मध्य कुषाणों के साथ प्रारम्भ हुआ। गौतम द्वारा प्रवर्तित न्यायसूत्र (जो संभवत: र्इसार्इ संवत के प्रारम्भ मेंं असितत्व मेंं आया) और 5वीं शताबिद मेंं न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने न्यायसिद्धान्त की आधारषिला रखी, जो आत्यनितक रूप से तर्क और जानकारी के विषयों से आच्छादित था। बौद्धपंथ मेंं मध्यम मार्ग अथवा शून्यवाद का आविर्भाव इस काल मेंं उदय हुआ और शून्यवाद के प्रबल समर्थक नागाजर्ुन के विचारों को बहुत अधिक मान्यता मिली। हालांकि बौद्ध मत के न्याय सिद्धान्त का वास्तविक और कठोर अथोर्ं मेंं कोर्इ असितत्व नहींं था लेकिन वैचारिक सम्प्रदायों मेंं दार्षनिकता की न्यायिक शैली का असितत्व अवष्य था।
गुप्त साम्राज्य के दौरान, ब्राह्राणवाद एक परिष्Ñत तथा अधिक शालीन रूप मेंं पुनर्जीवित हुआ। भगवान Ñष्ण को मध्य मेंं रखकर और क्रियाओं के कर्म से संन्यास की वकालत करते हुए वासुदेव सम्प्रदाय का वैष्णव मत तथा शैव पंथ भी बौद्ध और जैन पंथों के साथ साथ समृद्ध हुए। बौद्ध धर्म की दोनों शाखाओंं अर्थात महायान और हीनयान ने इस समय काफी उन्नति की। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि बौद्ध सम्प्रदाय मेंं योगाचार शाखा का उदय हुआ, जिसके चौथी शताबिद मेंं असंग और उसका भार्इ वासुबन्धु महान पथ प्रदर्षक थे। पांचवी शताबिद के अन्त मेंं दि³नाग नामक बौद्ध तर्कषास्त्री ने ‘प्रमाणसमुच्चय नामक सत्य ज्ञान के अर्थ का सार लिखा, जो बौद्ध सम्प्रदाय की विचारधारा और उसके आधार के संबन्ध मेंं किया गया कार्य था।
भारतीय दर्षन से संबद्ध महान हसितयां गुप्तकाल के पष्चात 7वीं से 10वीं शताबिद के मध्य हुयीं। तत्समय बौद्ध सम्प्रदाय का उतार और तानित्रक सम्प्रदाय का उदय हो रहा था। एक ऐसी सिथति आयी कि जिसने बौद्ध सम्प्रदाय मेंं भी तन्त्र साधना का अध्याय खोल दिया। काष्मीर मेंं शैव सम्प्रदाय का वर्चस्व दिनोंदिन बढ रहा था और भारत के दक्षिण मेंं वैष्णव मत का प्रचार हो रहा था। महान दार्षनिक और मीमांसक कुमारिल (7वीं शताबिद), प्रभाकर (7-8वीं शताबिद), मण्डन मिश्र (8वीं षताबिद), शालिकनाथ (9वीं शताबिद) और पार्थसारथी मिश्र (10वीं शताबिद) इस कालखण्ड मेंं हुए। फिर भी यह कहा जा सकता है कि, इस काल के महानतम दार्षनिक की उपाधि शंकराचार्य को दी गयी। इन सभी ने गैर सनातनपंथी सम्प्रदायों के विरुद्ध और विषेषतौर पर बौद्ध सम्प्रदाय की आलोचनाओं के विरोध मेंं ब्राह्राणवाद का पक्ष लिया। इस काल मेंं न्याय शाखा के तत्कालीन दार्षनिक वाचस्पति मिश्र, उदयानाचार्य और उडियातकारा के द्वारा ब्राह्राणवाद और बौद्ध सम्प्रदाय के मध्य तार्किक स्तर पर बहस चलती रही।
दर्षन आधारित धार्मिक संक्रानित के इस काल मेंं मनिदरों के निर्माण की एक अनूठी कड़ी है, जिसका उल्लेख अपरिहार्य रूप से आवष्यक हो जाता है। अगले कुछ पृष्ठों में हम इसकी चर्चा करते हैं।
मनिदरों का निर्माण
(11वीं से 19वीं शताबिद)
पौराणिक सन्दर्भ मेंं देखा जावे तो मनिदरों का निर्माण, उनकी संख्या और बनावट के विषय मेंं यही कहा जा सकता है कि, यधपि मनिदरों का असितत्व था तो सही किन्तु उनका उल्लेख इतना कम है कि, निषिचत रूप से यह कहा जा सकता है कि, लोकजीवन मेंं मनिदरों का महत्त्व उतना नहींं था जितना आत्मचिन्तन और मनन का। अधिकांष मनिदर व्यäगित उपासना स्थलों के रूप मेंं थे। यही कारण जान पड़ता है कि, मनिदरों के असितत्त्व का सार्वजनिक असितत्त्व दृषिटगोचर नहींं होता। रामायण काल मेंं श्रीराम अपने महल मेंं ही एक विषेष भाग मेंं अपने पूर्वजों की प्रतिमाओं के समक्ष समय-समय पर उनके आषीर्वाद और मार्गदर्षन के निमित्त प्रार्थना करने जाते हैंं और स्वयंवर से पूर्व सीता भी अपनी सखियों और दासियों के साथ गौरी पूजा के लियेे राजा जनक के महलों की वाटिका मेंं ही सिथत गौरी मनिदर मेंं पूजा के लियेे जाती हैं, किन्तु अयोध्या या जनकपुरी मेंं किसी अन्य मनिदर का उल्लेख नहींं होना उस काल मेंं मनिदरों के असितत्व के संबन्ध मेंं इंगित करता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि, राजा जनक को वैष्णव अर्थात विष्णु भä बताया गया है किन्तु उनके प्रासाद या वाटिका मेंं गौरी का मनिदर किस तथ्य की ओर इंगित करता है? क्योंकि ऐसे षिव मनिदर तो हैंं जिनमेंं सती अथवा षिव परिवार के अन्य सदस्य नहींं है किन्तु केवल सती अथवा पार्वती का कोर्इ भी मनिदर नहींं है। कामरूप कामाख्या, हिंगलाज, ज्वाला, नैना और वैष्णोदेवी आदि षä पिीठाें को सती मनिदर कहा जावे तो बात और है। इसी प्रकार महाभारत मेंं यधपि बहुचर्चित किन्तु मात्र दो घटनाओं में Ñष्ण के साथ रूक्मणी और अजर्ुन के साथ सुभद्रा के भागने के समय दोनों ही नायिकाओं द्वारा देवी पूजा के लियेे वन मेंं सिथत गौरी माता (माता पार्वती) के मनिदर की चर्चा है।
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताबिद) मेंं मनिदरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृषिट मेंं आता है। पहले लकड़ी के मनिदर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और र्इंट से मनिदर बनने लगे। 7वीं शताबिद तक देष के आर्य संस्कृति वाले भागों मेंं पत्थरों से मनिदरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताबिद मेंं गुप्तकाल मेंं मनिदरों का निर्माण बहुत æ्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मनिदरों की शैली बौद्ध मनिदरों से ली गयी होगी जैसा कि उस समय के पुराने मनिदरो मेंं मूर्तियों को मनिदर के मध्य मेंं रखा होना पाया गया है और जिनमेंं बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मनिदर अपेक्षाकृत छोटे हैं जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चाराें ओर बरामदे से युä है। गुप्तकालीन आरमिभक मनिदर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मनिदरों की छत सपाट है; तथापि मनिदरों की उत्तर भारतीय षिखर शैली भी इस काल मेंं ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस षिखर की ऊंचार्इ बढती रही। 7वीं शताबिद मेंं बौद्ध गया मेंं निर्मित बौद्ध मनिदर की बनावट और ऊंचा षिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
बौद्ध और जैन पंथियों द्वारा धार्मिक उíेष्यों के निमित्त Ñत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था और हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था। फिर भी हिन्दुओं द्वारा गुफाओं मेंं निर्मित मनिदर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोर्इ भी साक्ष्य इस संबन्ध मेंं नहींं पाया जाता है। गुफा मनिदरों और षिलाओं को काटकर बनाये गये मनिदरों के संबंध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है। मæास वर्तमान ‘चेन्नर्इ के दक्षिण मेंं पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम मेंं, 7वीं शताबिद मेंं निर्मित अनेक छोटे मनिदर हैं जो चटटानों को काटकर बनाये गये हैंंं और जो तमिल क्षेत्र मेंं तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैंंं।
मनिदरों का असितत्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंष के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिषयोä निहींं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मनिदरों का महत्त्व और उनके आकार मेंं उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विषेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत मेंंं हिन्दू मनिदरों की उत्Ñष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेष के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेष्वर मेंं सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मनिदर वास्तुकला का सर्वोत्Ñष्ट उदाहरण है। हालांकि, 13वीं षताबिद मेंं निर्मित सूर्य मनिदर कोणार्क इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विष्व विख्यात मनिदर है। इसका षिखर इसके आरंमिभक दिनों मेंं ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही षेष बचा है। काल और वास्तु के दृषिटकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मनिदर 11वीं षताबिद मेंं बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान मेंं भी वास्तु के स्वतन्त्रष्षैली वाले अच्छे मनिदरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दषाब्द के अन्त मेंं वास्तु की दक्षिण भारतीय षैली तन्जौर (प्राचीन नाम तन्जावुर) के राजराजेष्वर मनिदर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी। अध्ययन की सुविधा के दृषिटकोण से भगवान व राजा और मनिदर व महलों में समानता का अध्ययन हम अगले पृष्ठों में करेंगें।
भगवान व राजा और मनिदर व महलों मेंं समानता
अध्ययन और आंकलन से एक अदभुत तथ्य यह प्रकट होता है कि मनिदरों मेंं धार्मिक रीति से भगवान की पूजा इस प्रकार की जाती थी जैसे कि पूजा करने वाले किसी महान राजा की सेवा कर रहे हों। प्रमुख मनिदरों मेंं आम लोगों सहित प्रषिक्षित पुजारियों की एक बड़ी संख्या पूजा के समय उपसिथत हुआ करती थी। भगवान को प्रात:काल उनकी भार्या के साथ जगाया जाकर नहलाने और कपडे़ पहनाने के पष्चात भोग लगाया जाता और इसके बाद गर्भगृह मेंं आम जनता के दर्षनार्थ लाया जाकर दिनभर पूजा अर्चना की जाती और धार्मिक अनुष्ठानपूर्वक भोग लगाकर और परिधान बदलकर रात्रि मेंं सुलाया जाता। उपासक दीपक जलाकर आरती उतारते, भजन गाते तथा अन्य प्रकार से श्रद्धा अर्पित करते। भगवान की देवदासियां निरन्तर उसके सम्मुख नृत्य प्रस्तुत करतीं जिसे उसके पुजारियों तथा मनिदर मेंं उपसिथत होने वाले सर्व साधारण उपासकों द्वारा देखा जाता। र्इस्वी संवत के प्रारम्भ होने से पूर्व कुछ हिन्दू मठों मेंं इन देवदासियों को वेष्याओं के रूप मेंं भी प्रयोग किया जाता रहा जो गुप्त काल के पष्चात विषेषत: दक्षिण भारत मेंं अधिक फैला और जो 19वीं षताबिद मेंं योरोपियन अत्याचार का जनक भी रहा। हिन्दू सुधारवादी नेता और सन्तों के प्रयासों के परिणामस्वरूप देवदासी प्रथा मेंं किसी नवीन कड़ी का जुड़ना यधपि 20वीं षताबिद मेंं स्पष्टत: सामने नहींं आया किन्तु इसके अवशेष वर्ष 2000 के अन्त तक विधमान रहे। इतिहास, कला, विज्ञान और संस्Ñति आधारित कार्यक्रम और वृत्तचित्र प्रदर्षित करने वाले प्रसिद्ध व लोकप्रिय दूरदर्षन चैनल ‘डिस्कवरी पर माह नवम्बर-दिसम्बर 2000 में देवदासियों पर तैयार वृत्तचित्र में सर्वाधिक वृद्ध देवदासी व उसकी सन्तानों की जानकारी दिया जाना इसका प्रमाण है।
मनिदरों और राजमहलों की समानता के परिप्रेक्ष्य मेंं देवदासियों की भूमिका को भलीभांति समझा जा सकता है। भारत मेंं राजा को भगवान का अंष माना जाता था। यह धारणा कमोबेष 20वीं षताबिद के अन्त तक पोषित होती रही है और अब भी विष्व मेंं जहां-जहां राजतन्त्र है वहां राजा को भगवान का दर्जा दिया जाता है। (सितम्बर 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ मिषन, बोस्नीया और हरजे़गोविना में पदस्थापन के दौरान इग्लैण्ड के दो सहयोगियों पीटर व एरिक से राजतन्त्र बनाम लोकतन्त्र विषय पर वाद विवाद के दौरान इंग्लैण्ड की महारानी के विरुद्ध बोलने पर वे दोनों मुझपर बहुत अधिक कुपित हो गये थे। स्टेषन कमाण्डर गियर्सन एण्डी के हस्तक्षेप से सिथति नियनित्रत हुर्इ और तीखे वाद विवाद की सूचना पर मिषन ंके मुख्यालय अधिकारियों द्वारा एक आदेष निकाला जाकर धर्म और राजनीति पर चर्चा को प्रतिबनिधत किया गया।) मनिदरों मेंं स्थापित भगवान ही की भांति हिन्दू राजा भी नृत्यांगनाएंं रखते थे जो उनके दरबार मेंं देवदासियों की तर्ज पर ही अपनी सेवाएं अर्पित करती थीं। रथयात्रा के रूप मेंं राजमहलों और मनिदरों के मध्य भी समानता द्रष्टव्य है कि, उत्सव, पर्व एवं त्यौहारों के दिन, राजा अपने सभासदों, सेेना की टुकडि़यों व संगीतज्ञों से घिरे हुए महलों से बाहर आकर नगर परिक्रमा करते थे। इसी भांति किसी प्रतिषिठत और बड़े मनिदर के भगवान को एक विषाल और सुसजिजत चलते-फिरते मनिदर और रथ मेंं बैठाकर आस-पास के छोटे मनिदरों के भगवानों सहित एक भव्य जुलूस के रूप मेंं नगर परिक्रमा करवायी जाती थी। उस रथ को जनसमुदाय द्वारा श्रद्धापूर्वक खींचा जाता था। इसका सुविख्यात उदाहरण उड़ीसा के पुरी सिथत भगवान जगन्नाथ की वार्षिक रथयात्रा है। कालान्तर मेंं राजा महाराजाओं के जनता दर्षन तो समाप्त होे गये और वर्ष 1950 मेंं भारत के गणतानित्रक होने के पष्चात उन राजाओं का स्थान नवनिर्वाचित नेताओं ने ले लिया और उनकी नगर परिक्रमा का स्वरूप भी लोकतानित्रक हो गया।
भगवान व राजाओं की शोभायात्रा तथा उनका वर्तमान स्वरूप
मनिदरों मेंं स्थापित भगवान की षोभायात्राओं पर भी समय का प्रभाव तो पड़ा किन्तु एक बड़ा अन्तर यह हुआ कि वे बड़े मनिदर जिनके लियेे राज्य द्वारा उनके बन्दोबस्त के लियेे गांवों मेंं जागीरें दी हुयी थी और पुण्यार्थ किये जाने वाले दान तथा श्रद्धालुओं द्वारा चढार्इ जाने वाली भेंट से जिनका आर्थिक स्तर चरम पर था, ऐसे मनिदरों के भगवान की षोभायात्राएंंं तो दिनाेंदिन और अधिक भव्य होती गयी, साथ ही ऐसे छोटे मनिदर जो कालान्तर मेंं समृद्ध हो गये, उनकी भी पृथक षोभायात्राएं प्रारम्भ हो गयीं और इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। (यह और बात है कि, आज निकाली जाने वाली धार्मिक षोभारथयात्राओं का आधार धार्मिक कम और जातिगत गणषä प्रिदर्षन होकर अन्ततोगत्वा राजनैतिक षäयिें का ध्यानाकर्षण अधिक है)। उन बड़े और आर्थिक रूप से समृद्ध मनिदरों की अतुल सम्पत्ति 11वीं षताबिद मेंं मुहम्मद गौरी और महमूद गजनवी के आक्रमणों के कारणों मेंं एक महत्त्वपूर्ण कारण था। इन मनिदरों की सम्पत्ति जनकल्याण मेंं खर्च की गयी हो ऐसा एक भी दृष्टान्त इतिहास मेंं देखने मेंं नहींं आता। किन्तु इन मनिदरों मेंं आने वाले चढ़ावे को लेकर पुजारियों मेंं होने वाले झगड़़ों ने वंष परम्परा से प्राप्त होने वाले पूजा के अधिकार का एक नया अध्याय अवष्य खोल दिया। अब इन मनिदरों की पूजा एक स्वषासित कमेटी द्वारा की जाती है, जिसकी सदस्यता सामान्यत: एक वंषानुगत विषेषाधिकार है और उनका मुखिया असाधारण अधिकारोंं से युä प्रभुत्व सम्पन्न व्यä हिेता है। दक्षिण भारत मेंं ऊंची-ऊंचीं प्राचीरों वाले विषालकाय मनिदर अब भी अपने आप मेंं एक नगर की भांति हैं, जिनमेंं केन्æ्रीयÑत गर्भगृह के अतिरिä अनेक छोटे गर्भगृह, बडे-बड़े स्नानघर, प्रषासनिक कार्यालय, मनिदर मेंं काम करने वाले अनुचरों के घर, बाजार, कार्यषालाएं तथा अनेक प्रकार के जनोपयोगी भवन हैं। क्योंकि ये मनिदर आम जनता की एक बड़ी संख्या के नियोäा थे और काफी बड़े बड़े भू भागों पर इनका स्वामित्व था, अत: तत्कालीन अर्थव्यवस्था मेंं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। विधालय, चिकित्सालय, धर्मषाला, गरीबों के लियेे आश्रय स्थल, बैंक और सामुदायिक स्थानों के रूप मेंं इन मनिदरों का सामाजिक क्षेत्र मेंं भी मूल्यवान योगदान रहा।
मुसिलम धर्म का प्रभाव
मुसिलम आक्रान्ताओं के आक्रमण से पूर्व, द्रविड़ों की सीमा के परे दक्षिण भारतीय भकित षैली का प्रसार होना प्रारम्भ हो गया था। 11वीं शताबिद मेंं तिरुचनापल्ली के निकट श्रीरंगम के वैष्णव मनिदर के प्रमुख पुजारी तमिल ब्राह्राण रामानुज सहित पंचरात्र और भागवत सम्प्रदाय के केन्द्रीय वैष्णव पंथियों ने वैष्णव सम्प्रदाय और दर्षन के प्रचार प्रसार को गति दी और इससे शैव सम्प्रदाय पर भी आंषिक प्रभाव पड़ा। दो अन्य वैष्णव आचार्य भी उल्लेखनीय है। प्रथमत: निम्बार्काचार्य जो कि 12वींं 13वींं शताबिद के तेलगू ब्राह्राण थे, ने राधा-Ñष्ण की भकित का पंथ चलाया। इस पंथ को मथुरा मेंं अधिकाधिक लोगों ने अपनाया, किन्तु अन्य स्थानों पर इसका प्रभाव आंषिक ही रहा।
दूसरा उल्लेखनीय नाम वर्ष 1479-1531 के मध्य वल्लभ सम्प्रदाय के जनक वल्लभाचार्य का है, जिन्होंने र्इष्वरीय उपकार के वैष्णव सिद्धान्त को अपनाया। यह सम्प्रदाय अधिक प्रख्यात नहींं हुआ क्योंकि इसमेंं गुरू की आज्ञापालन पर आत्यनितक रूप से जोर दिया जाता है। प्रारमिभक काल मेंं यह वरिष्ठ संन्यासियों (जिन्हेंं गोस्वामी कहा जाता था) के द्वारा संचालित किया जाता था, जिनमेंं से अधिकांष बहुत अधिक धनवान हो गये। यह वल्लभ सम्प्रदाय एक समय उत्तर पषिचमी भारत मेंं बहुत अधिक प्रभावषाली हो गया था, किन्तु 19वीं शताबिद मेंं वल्लभाचार्य के उत्तराधिकारी के विरुद्ध बहुत अधिक कानूनी विवादों के कारण इसका प्रभाव कम हो गया।
वैदिक और पौराणिक रूद्र और षिव के उपासकों की एक शकितषाली श्रंृखला पर दृषिट न डालें और ऐतिहासिक गवेषणा करें तो शैव सम्प्रदाय का वास्तविक विकास भी 10वीं शताबिद के पष्चात प्रकट होता है। दक्षिण भारत मेंं शैव सिद्धान्त नामक सम्प्रदाय का उदभव हुआ, जोे अब तक उस क्षेत्र मेंं प्रचलित सम्प्रदायों मेंं विषेष स्थान रखता है और शंकराचार्य के सिद्धान्त के विपरीत र्इष्वर और आत्मा के असितत्त्व को पूर्णतया स्वीकार नहींं करता। 9वीें शताबिद के आरम्भ मेंं शैव सम्प्रदाय के पूर्णरूपेण अद्वैतवादी पंथ का उदभव कष्मीर मेंं हुआ। इस पंथ का सिद्धान्त तथा शंकराचार्य के सिद्धान्त मेंं प्रमुख अन्तर यह था कि यह पंथ आत्मा के आत्यनितक स्वरूप के असितत्त्व को मानता है, जो कि भगवान शंकर है न कि ब्रहमा।
12वीं शताबिद मेंं दक्षिण के कन्नड़भाषी क्षेत्र मेंं लिंगायतों का एक महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प सम्प्रदाय भी पाया जाता ह,ै जिसे वीर शैव सम्प्रदाय भी कहते हैंं। इसके प्रवर्तक बासवा ने आष्चर्यजनक गैररुढि़वादी सिद्धान्तों और व्यवहारों की षिक्षा दी। उन्होंने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा का विरोध किया और केवल षिवलिंग को पवित्र प्रतीक माना। वीर शैव पंथ ने वेदों, ब्राह्राणों के पूजावाद और समस्त जातिभेदों को अस्वीकृत किया। अनेक लिंगायत पद्धतियांं अब त्याग दी गयी हैं और विधवा विवाह तथा मृतकों को दफनाने जैसी प्रथा अब नहींं है।
मुसिलम आधिपत्य ने भारत को एक अलग प्रकार के और उग्र धर्म के साथ खड़ा कर दिया। इन परिसिथतियों मेंं एक केन्द्रीयÑत धार्मिक अधिकारिता के अभाव मेंं हिन्दुत्व षकित का एक स्रोत बन गया। पुरोहित या पारिवारिक पुजारी जो आम आदमी के घरेलू धार्मिक अनुष्ठान और व्यकितगत पवित्र संस्कार पूर्ण करवाते थे वे अपना कार्य करते रहे। मुसिलम आधिपत्य वाले क्षेत्रों मेंं मनिदराें का काफी नुकसान हुआ। वाराणसी और मथुरा के पवित्र नगरों मेंं 17वीं षताबिद के पूर्व तक कोर्इ बड़ा मनिदर हम इतिहास मेंं नहींं पाते। यही बात उत्तरी भारत के अन्य धार्मिक केन्द्रों के बारे मेंं भी सत्य हैं, किन्तु उत्तरी भारत मेंं जहां मुसिलम प्रभाव कम था वहां ऐसा नहींं था जैसे उडि़सा, राजस्थान (उस समय जो भी संज्ञा रही हो) और दक्षिणी भारत में।
उत्तरन्यायसिद्ध काल (11वीं षताबिद)
11वीं शताबिद तक भारत मेंं मुसिलम साम्राज्य अपने पांव पसार चुका था। तब तक बौद्ध धर्म व्यावहारिक रूप से भारत से लुप्त हो गया था तथापि 11वीं शताबिद के हिन्दू साहित्य मेंं यह प्रकट होता है कि, बौद्ध विचारधारा हिन्दुत्व मेंं आत्मसात हो चुकी थी और बुद्ध को विष्णु का एक अवतार बताया जाकर उसे दृढतापूर्वक हिन्दुत्व की पहचान दी गयी। मुसिलम विजेताओं के आगमन ने सनातन पंथी विचारधारा को नयी सिथति के अनुरूप स्वयं मेंं सामंजस्य की आवष्यकता को उत्पन्न किया। किन्तु जैसा कि 11वीं शताबिद मेंं प्रभाचन्द्र द्वारा रचित ”प्रमेयकमलमार्तण्ड (सत्य ज्ञान के वस्तु कमल का सूर्य) तथा 12वीं शताबिद मेंं देवासुर द्वारा रचित ”प्रमाणान्यतत्त्वलोकालंकार (सत्य ज्ञान के साधनों के संबन्ध मेंं विभिन्न दृषिटकोण तथा सत्य के प्रकाष का आभूषण) से प्रकट होता है कि, गैर सनातन पंथी शाखा जैन सम्प्रदाय पुन: अपने शुद्ध रूप मेें रहा। 850 से 1279 र्इस्वी संवत मेंं तथा बाद मेंं विजयनगर राज्य मेंं (जो 16वीं शताबिद के मध्य मेंं उत्तरी भारत के मिथिला के साथ-साथ हिन्दुत्व का मजबूत गढ़ रहा) वैष्णव मत का बोलबाला रहा। 1050 र्इस्वी संवत मेंं यामुनाचार्य ने ”प्रपत्ति अर्थात र्इष्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की षिक्षा दी। 11वीं शताबिद मेंं दार्षनिक रामानुज और 12वीं शताबिद मेंं निम्बार्काचार्य ने वेदान्त के आसितकवाद को विकसित किया और शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त की बारम्बार कटु आलोचना की। 12वीं शताबिद के अन्त मेंं बंगाल और मिथिला मेंं धार्मिकषास्त्रों की तार्किक रचनाओं के संबन्ध मेंं उच्चस्तरीय रचनात्मक कायोर्ं की शुरूआत हुर्इ। विचारधाराओं की नवीन शाखाओंं मेंं 12वीं 13वीं शताबिद के दार्षनिक गांगेसा द्वारा रचित ”तत्त्वचिन्तामणि ने नव्यन्याय शाखा की आधारषिला रखी, जिसके चार महान विचारक मिथिला के पक्षधर मिश्रा और उनके बाद 16वीं शताबिद मेंं वासुदेव सार्वभौम तथा उनके दो बंगाली षिष्य रधुनाथ षिरोमणि व गदाधर भटटाचार्य हुए।
साहित्यकारों के अनुसार शैव सम्प्रदाय मेंं एक बहुत महत्त्वपूर्ण व्यäत्तिव गोरक्षनाथ की उपसिथति 11वींंं से 13वींं शताबिद (यह अब तक विवादित है इस विषय पर हमने ‘गोरक्षनाथ नामक अध्याय मेंं पृथक से विवेचना की है) मेंं पायी जाती है, जो अपने अदभुत व्यäत्तिव और आष्चर्यजनक अविष्वसनीय चमत्कारी शäयिें के कारण समस्त शैव संन्यासियों के शीर्षस्थ गुरु बन जाते हैंं। वस्तुत: यह अविवादित रूप से सर्वमान्य है कि आदिनाथ महादेष शंकर द्वारा प्रवर्तितसंस्थापित सिद्धयोग के अनुयायी तथा वाहक हैं। सिद्धयोग के दो सोपान क्रमष: हठयोग तथा राजयोग हैं। हठयोग शरीर की जड़ता को समाप्त कर काया को रोगरहित करने वाला तथा द्वितीय राजयोग मन व बुद्धि को सिथर कर आत्मा, जीवात्मा व परमात्मा की एकात्मता के योग्य बनाने वाला है। उल्लेखनीय है कि राजयोग की सिथति प्राप्त करने से पूर्व योगी को हठयोग की कठिन व दीर्घ प्रकि्रया से गुजरना होता है। राजयोग की सिथति तक पहुुंचने वाले योगी विरले होते हैं और इस दीर्घकाल तक चलने वाला हठयोग ही वर्तमान में गोरक्षनाथी सम्प्रदाय के रूप मेंं प्रसिद्ध हो गया है जो भ्रानितपूर्ण है। सिद्धयोग का यह प्रथम सोपान हठयोग, जिसमेंं विकट शारीरिक व्यायाम निहित है, पाष्चात्य देषों मेंं सर्वाधिक और अन्य स्थानों पर भी काफी लोकप्रिय हुआ है। कतिपय योगी तो केवल हठयोग के मात्र कुछ आसनों के अल्पज्ञान और अभ्यास से ही योग का व्यवसाय चला रहे हैं।
इस प्रकार यह काल जीवन में धार्मिक व्यवहार के सरल तथा अधिक स्पष्ट असितत्व तथा महान चमत्कारिक सूफी सन्तों के उपदेषों से ओत-प्रोत है। इन योगियों ने जो अब भी संख्या मेंं बहुत अधिक हैं, अनेक भä रिचनाओं की षिक्षाओं को प्रभावित किया है। इन चमत्कारी सन्तों में अपने योग आधारित चमत्कारों के लिये एक तरफ अकेले गोरक्षनाथ और दूसरी तरफ मुख्य रूप से रामानन्द, कबीर, चैतन्य महाप्रभु और गुरु नानक का नाम विषेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने भä किे लियेे समर्पण भाव पर जोर दिया और जिनके उपदेषों मेंं मानवता, विचारों की स्वतन्त्रता तथा सभी धमोर्ं की एकता को प्रमुखता दी गयी। इससे कुछ ही समय पूर्व ख्वाजा मुइनुíीन हसन चिष्ती सहित मुसिलम सूफ़ी सन्तों ने संन्यास पर जोर दिया और र्इष्वर तथा मानवता से प्रेम की षिक्षा दी।
बि्रटिष काल मेंं हिन्दुत्व
बि्रटिष कालीन भारत का दार्षनिक इतिहास प्राथमिक रूप से प्राचीन परम्पराओं की खोज, भारतीय दर्षन के संबन्ध मेंं पाष्चातय विचारधारा से तुलना व संष्लेषण का समय रहा। उदाहरणार्थ शोधकर्ता एवं भारत के प्रथम राष्ट्राध्यक्ष डा0 सर्वपल्ली राधाÑष्णन मेनन, डा0 एस.एन. दासगुप्ता तथा पष्चातय विद्वान डब्ल्यू.जे. बि्रग्स की रचनाओं का अवलोकन किया जा सकता है। आधुनिक और रचनात्मक चिन्तकों मेंं महात्मा गांधी जिन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक दर्षन के क्षेत्र मेंं नवीन विचारों का अपनाया, अद्वैत वेदान्त की नयी शाखा के प्रतिपादक श्रीअरविन्द और के.सी. भटटाचार्य हैं, जिन्होने दर्षन के वस्तुवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
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