Wednesday, 24 June 2015

अयोध्या: राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास

       







सरयू के तट पर अयोध्या के राम कोट मोहल्ले में सोलहवीं शताब्दी में बनी मस्जिद और राम जन्मभूमि को लेकर यूँ तो सदियों से विवाद चला आ रहा है. लेकिन रामजन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद की लंबी कानूनी लड़ाई का दौर भारत के आज़ाद होने के बाद दिसंबर १९४९ में शुरू हुआ.

अयोध्या में सदियों से चले आ रहे राम जन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद के ऐतिहासिक विवाद का वर्तमान अध्याय 22-23 दिसंबर, 1949 को मस्जिद के अंदर कथित तौर पर चोरी - छिपे मूर्तियां रखने से शुरू हुआ था. शुरूआती मुद्दा सिर्फ़ ये था कि ये मूर्तियां मस्जिद के आँगन में क़ायम कथित राम चबूतरे पर वापस जाएँ या वहीं उनकी पूजा अर्चना चलती रहे.
मगर 60 साल के लंबे सफ़र में अदालत को अब मुख्य रूप से ये तय करना है कि क्या विवादित मस्जिद कोई हिंदू मंदिर तोड़कर बनाई गई थी और क्या विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है? वैसे तो हाईकोर्ट को दर्जनों वाद बिंदुओं पर फ़ैसला देना है, लेकिन दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि क्या विवादित इमारत एक मस्जिद थी, वह कब बनी और क्या उसे बाबर अथवा मीर बाक़ी ने बनवाया? इसी के साथ कुछ तकनीकी या क़ानूनी सवाल भी हैं. मसलन क्या जिन लोगों ने दावे दायर किए हैं , उन्हें इसका हक़ है? क्या उन्होंने उसके लिए ज़रुरी नोटिस वग़ैरह देने की औपचारिकताएँ पूरी की हैं और क्या ये दावे क़ानून के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर दाख़िल किए गए? अदालत को ये भी तय करना है कि क्या इसी मसले पर क़रीब सवा सौ साल पहले 1885 – 86 में अदालत के ज़रिए दिए गए फ़ैसले अभी लागू हैं. उस समय हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था, जिसे अदालत ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि ऐसा होने से वहाँ रोज़- रोज़ सांप्रदायिक झगड़े और ख़ून- ख़राबे का कारण बन जाएगा. अदालत ने ये भी कहा था कि हिंदुओं के ज़रिए पवित्र समझे जाने वाले स्थान पर मस्जिद का निर्माण दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन अब इतिहास में हुई ग़लती को साढ़े तीन सौ साल बाद ठीक नही किया जा सकता. मामले को हल करने के लिए सरकारों ने अनेकों बार संबंधित पक्षों की बातचीत कराई, लेकिन कोई निष्कर्ष नही निकला. लेकिन बातचीत में मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई अथवा नही. सुप्रीम कोर्ट ने भी 1994 में इस मामले में अपनी राय देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ कोई मंदिर तोड़कर कोई मस्जिद बनाई गई थी. गेंद अब हाईकोर्ट के पाले में है. मसला तय करने के लिए अदालत ने ज़ुबानी और दस्तावेज़ी सबूतों के अलावा पुरातात्विक खुदाई करवाकर एक रिपोर्ट भी हासिल कर ली है, जिसमें मुख्य रूप से ये कहा गया है कि विवादित मस्जिद के नीचे खुदाई में मंदिर जैसी एक विशाल इमारत , खम्भे , एक शिव मंदिर और कुछ मूर्तियों के अवशेष मिले हैं. लेकिन मुस्लिम पक्ष ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की इस रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति करते हुए उसे सबूतों में शामिल न करने की बात कही है, जबकि हिंदू पक्ष इस रिपोर्ट के अपने दावे की पुष्टि में प्रमाण मानते हैं. अदालत में मुख्य रूप से चार मुक़दमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं. सरकार मुकदमे में पक्षकार है, लेकिन उसकी तरफ़ से कोई अलग से पैरवी नही हो रही है. सरकार की तरफ़ से शुरुआत में सिर्फ़ ये कहा गया था कि वह स्थान 22/ 23 दिसंबर 1949 तक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है. इसी दिन मस्जिद में मूर्तियाँ रखने का मुक़दमा भी पुलिस ने अपनी तरफ़ से क़ायम करवाया था, जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क करके ताला लगा दिया गया था. इमारत तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम की सुपुर्दगी में दे दी गई और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई. आरोप हैं कि तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट केके नैयर भीतर- भीतर उन लोगों का साथ दे रहे थे, जिन्होंने मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखीं. इसीलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के कहने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटवाईं. जनवरी 16, 1950 को हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता गोपाल सिंह विशारद ने सिविल कोर्ट में ये अर्ज़ी दायर की कि मूर्तियों को वहाँ से न हटाया जाए और एक राम भक्त के रूप में उन्हें वहाँ पूजा अर्चना की अनुमति दी जाए. सिविल कोर्ट ने ऐसा ही आदेश पारित कर दिया. अदालत ने पूजा आदि के लिए रिसीवर की व्यवस्था भी बहाल रखी. इस मुक़दमे में सरकार को नोटिस देने की औपचारिकता पूरी नही की गई थी. संभवतः इसीलिए कुछ दिन बाद ऐसा ही एक और दावा दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र दास परमहंस ने दायर किया, जो उन्होंने बाद में 1989 में वापस ले लिया. फिर 1959 में हिंदुओं की पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुक़दमा दर्ज करके कहा कि उस स्थान पर सदा से राम जन्म स्थान मंदिर था और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है, इसलिए रिसीवर हटाकर इमारत उसे सौंप दी जाए. निर्मोही अखाड़ा का तर्क है कि मंदिर को तोड़ने के प्रयास किए गए पर वह सफल नही हुए और हिंदू वहाँ हमेशा पूजा करते रहे. उनका यह भी कहना है कि 1934 के दंगों के बाद मुसलमानों ने डर के मारे वहाँ जाना छोड़ दिया था, और तब से वहाँ नमाज़ नही पढ़ी गई. इसलिए हिंदुओं का दावा पुख़ता हो गया. दो साल बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुक़दमा दायर करके कहा कि बादशाह बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवाई थी और 22/ 23 दिसंबर, 1949 तक यह मस्जिद के रूप में इस्तेमाल होती रही है. इतने लंबे समय तक उनका कब्ज़ा रहा. इसे मस्जिद घोषित कर उन्हें क़ब्जा दिलाया जाए. मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि निर्मोही अखाड़ा ने 1885 के अपने मुक़दमे में केवल राम चबूतरे पर दावा किया था, न कि मस्जिद पर और वह अब उससे पलट नही सकता. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अदालत का तत्कालीन फ़ैसला अब भी बाध्यकारी है. मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के क़ब्ज़े और दावे को स्वीकार करता है. मुस्लिम पक्ष तर्क में यह तो मानता है कि वर्तमान अयोध्या वही अयोध्या है जहां राम चन्द्र जी पैदा हुए, लेकिन बाबर ने जहाँ मस्जिद बनवाई, वह ख़ाली जगह थी. क़रीब चार दशक तक यह विवाद अयोध्या से लखनऊ तक सीमित रहा. लेकिन 1984 में राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से जन्म भूमि का ताला खोलने का ज़बरदस्त अभियान चलाकर इसे राष्ट्रीय मंच पर ला दिया. इस समिति के अध्यक्ष गोरक्ष पीठाधीश्वर हिंदू महासभा नेता महंथ अवैद्य नाथ ने और महामंत्री कांग्रेस नेता तथा उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना इसमें शामिल थे. एक स्थानीय वकील उमेश चंद्र पाण्डे की दरख़ास्त पर तत्कालीन ज़िला जज फ़ैज़ाबाद के एम पाण्डे ने एक फऱवरी 1986 को विवादित परिसर का ताला खोलने का एकतरफ़ा आदेश पारित कर दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय में हुई. इसी की प्रतिक्रिया में फ़रवरी, 1986 में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने भी विश्व हिंदू परिषद की तरह आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता अख़्तियार किया. ताला खोलने के आदेश के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय की अपील अभी भी कोर्ट में लंबित है. मामले में एक और मोड 1989 के आम चुनाव से पहले आया जब विश्व हिंदू परिषद के एक नेता और रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने एक जुलाई को भगवान राम के मित्र के रूप में पांचवां दावा फ़ैज़ाबाद की अदालत में दायर किया. इस दावे में स्वीकार किया गया कि 23 दिसंबर 1949 को राम चबूतरे की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रखी गईं. दावा किया गया कि जन्म स्थान और भगवान राम दोनों पूज्य हैं और वही इस संपत्ति के मालिक. इस मुक़दमे में मुख्य रूप से ज़ोर इस बात पर दिया गया है कि बादशाह बाबर ने एक पुराना राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई. दावे के समर्थन में अनेक इतिहासकारों, सरकारी गज़ेटियर्स और पुरातात्विक साक्ष्यों का हवाला दिया गया है. यह भी कहा गया कि राम जन्म भूमि न्यास इस स्थान पर एक विशाल मंदिर बनाना चाहता है. इस दावे में राम जन्म भूमि न्यास को भी प्रतिवादी बनाया गया. श्री अशोक सिंघल इस न्यास के मुख्य पदाधिकारी हैं. इस तरह पहली बार विश्व हिंदू परिषद भी परोक्ष रूप से पक्षकार बना. याद रहे कि राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश फ़ैज़ाबाद में जन सभा कर राम राज्य की स्थापना के नारे के साथ किया था. चुनाव से पहले ही विवादित मस्जिद के सामने क़रीब दो सौ फुट की दूरी पर वीएचपी ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, जो कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय की नाराज़गी का कारण बना. विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में शिलान्यास से पूर्व इस मामले में कोर्ट आदेश के पालन की बात कही थी, पर अब वह संसद में कानून बनाकर मामले को हल करने की बात करती है, क्योंकि उसके मुताबिक़ अदालत आस्था के सवाल पर फ़ैसला नही कर सकती. निर्मोही अखाड़ा और विश्व हिंदू परिषद अदालत की लड़ाई में एक दूसरे के विरोधी हैं. जगदगुरु स्वामी स्वरूपानंद की राम जन्म भूमि पुनरुद्धार समिति भी 1989 में इस मामले में प्रतिवादी बनी. उनका दावा है कि पूरे देश के सनातन हिंदुओं का प्रतिनिधित्व यही संस्था करती है. उसके तर्क निर्मोही अखाड़ा से मिलते जुलते हैं. हिंदुओं की दो और संस्थाएं हिंदू महासभा और आर्य प्रादेशिक सभा भी प्रतिवादी के रूप में इस स्थान पर सदियों से राम मंदिर होने का दावा करती हैं. इनके अलावा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने कई अन्य हिंदुओं को उनकी निजी हैसियत से भी प्रतिवादी बनाया हैं. इनमे हनुमान गढ़ी के धर्मदास प्रमुख हैं. धर्मदास और निर्मोही अखाड़ा की पुरानी लड़ाई है और वह विश्व हिंदू परिषद के क़रीब हैं. निर्मोही अखाड़ा ने कई स्थानीय मुसलमानों को प्रतिवादी बनाया है. मुसलमानों की ओर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मुख्य दावेदार है. सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने हाशिम अंसारी समेत कई स्थानीय मुसलमानों को अपने साथ पक्षकार बनाया है. उसके अलावा जमीयत-ए-उलेमा हिंद, शिया वक़्फ़ बोर्ड, आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस संस्थागत रूप से प्रतिवादी हैं. मुस्लिम पक्षों का सबका दावा लगभग एक जैसा है सिवा आल इण्डिया शिया कांफ्रेंस के जिसने पहले यह कहा था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात साबित हो जाए तो मुलिम अपना दावा छोड़ देंगे. 

अयोध्या विवाद को दशकों बीत रहे हैं। मसला आज भी जस का तस है। विवाद इस बात पर है कि देश के हिंदूओं की मान्यता के अनुसार अयोध्या की विवादित जमीन भगवान राम की जन्मभूमि है जबकि देश के मुसलमानों की पाक बाबरी मस्जिद भी विवादित स्थल पर स्थित है। मुस्लिम सम्राट बाबर ने फतेहपुर सीकरी के राजा राणा संग्राम सिंह को वर्ष 1527 में हराने के बाद इस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था। बाबर ने अपने जनरल मीर बांकी को क्षेत्र का वायसराय नियुक्त किया। मीर बांकी ने अयोध्या में वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।

इस बारे में कई तह के मत प्रचलित हैं कि जब मस्जिद का निर्माण हुआ तो मंदिर को नष्ट कर दिया गया या बड़े पैमाने पर उसमे बदलाव किये गए। कई वर्षों बाद आधुनिक भारत में हिंदुओं ने फिर से राम जन्मभूमि पर दावे करने शुरू किये जबकि देश के मुसलमानों ने विवादित स्थल पर स्थित बाबरी मस्जिद का बचाव करना शुरू किया। प्रमाणिक किताबों के अनुसार पुन: इस विवाद की शुरुआत सालों बाद वर्ष 1987 में हुई। वर्ष 1940 से पहले मुसलमान इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहते थे, इस बात के भी प्रमाण मिले हैं। वर्ष 1947- भारत सरकार ने मुस लमानों के विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया जबकि हिंदू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा। वर्ष 1984- विश्व हिंदू परिषद ने हिंदुओं का एक अभियान शिरू किया कि हमें दोबारा इस जगह पर मंदिर बनाने के लिए जमान वापस चाहिए। वर्ष 1989- इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिंदुओं को दे देना चाहिए। सांप्रदायिक ज्वाला तब भड़की जब विवादित स्थल पर स्थित मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया। जब भारत सरकार के आदेश के अनुसार इस स्थल पर नये मंदिर का निर्माण सुरू हुआ तब मुसलमानों के विरोध ने सामुदायिक गुस्से का रूप लेना शरु किया। वर्ष 1992- 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही यह मुद्दा सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का रूप लेकर पूरे देश में संक्रामक रोग की तरह फैलने लगा। इन दंगों में 2000 से ऊपर लोग मारे गए। मस्जिद विध्वंस के 10 दिन बाद मामले की जांच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया। वर्ष 2003- उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरात्तव विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले। वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायल की लखनऊ बेंच में 574 पेज की नक्शों और समस्त साक्ष्यों सहित एक रिपोर्ट पेश की गयी।


भारतीय पुरात्तव विभाग के अनुसार खुदाई में मिले भग्वशेषों के मुताबिक विवादित स्थल पर एक प्रचीन उत्तर भारतीय मंदिर के प्रचुर प्रमाण मिले हैं। विवादित स्थल पर 50X30 के ढांचे का मंदिर के प्रमाण मिले हैं। वर्ष 2005- 5 जुलाई 2005 को 5 आतंकियों ने अयोध्या के रामलला मंदिर पर हमला किया। इस हमले का मौके पर मौजूद सीआरपीएफ जवानों ने वीरतापूर्वक जवाब दिया और पांचों आतंकियों को मार गिराया। वर्ष 2010- 24 सितंबर 2010 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने फैसले की तारीख मुकर्रर की थी। फैसले के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने के लिए की यगयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे 28 सितंबर तक के लिए टाल दिया।


विवादित स्थल की खुदाई में मिली रोचक जानकारियां

अयोध्या के विवादित धार्मिक स्थल पर मुक़दमों में अदालत के सामने एक मुख्य वाद बिंदु यह था कि क्या कोई पुराना हिंदू मंदिर तोड़कर वह मस्जिद बनाई गई थी.


अदालत ने अगस्त – अक्टूबर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से जीपीआर सर्वेक्षण कराया. यह कार्य टोजो विकास इंटरनेशनल नाम की कंपनी ने किया. फरवरी 2003 में इनकी रिपोर्ट में कहा गया कि वहां जमीन के अंदर कुछ इमारतों के 184 भग्नावशेष हैं. इस रिपोर्ट पर मुक़दमे के पक्षकारों की राय सुनने के बाद अदालत ने मार्च 2003 में सिविल प्रोसीजर कोड के तहत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को आदेश दिया कि वह संबंधित विवादित परिसर (केवल उस स्थान को छोड़कर जहां दिसंबर 1992 में विवादित मस्जिद ध्वस्त होने के बाद से तम्बू के अंदर भगवान राम की मूर्ति रखी है) की खुदाई करके खोजबीन करे. यह खुदाई दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों, वकीलों की मौजूदगी में हुई. एएसआई की टीम में भी दोनों समुदायों के कुल 14 पुरातत्व विशेषज्ञ शामिल थे. खुदाई की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी होती रही. फैजाबाद में तैनात दो जज प्रेक्षक के तौर पर उपस्थित रहे. यह खुदाई 12 मार्च से 7 अगस्त तक हुई. इसके बाद एएसआई ने दो खण्डों में विस्तृत रिपोर्ट, फोटोग्राफ, नक़्शे और स्केच पेश किए. इसके बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 20 बिंदुओं पर अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि रिपोर्ट को सबूत के तौर पर विचार न किया जाए और उसे रद्द कर दिया जाए. निर्मोही अखाड़ा ने अपनी आपत्ति में कहा कि सही स्थिति का पता करने के लिए पूरब की ओर कुछ और खुदाई की जाए. इन आपत्तियों पर वकीलों की लंबी बहस हुईं. इसके बाद फरवरी 2005 में जस्टिस एस आर आलम, जस्टिस खेम करन और जस्टिस भंवर सिंह ने सर्वसम्मति से 21 पन्नों का आदेश किया. आदेश में कहा गया कि संभवतः किसी अदालत ने पहली बार सिविल प्रोसीजर कोड के तहत इतने बड़े इलाक़े की खुदाई के जरिए जांच पड़ताल का आदेश दिया है. आदेश में एसएसआई रिपोर्ट का यह उद्धरण दिया गया कि संस्था के 100 साल के इतिहास में कोर्ट कमीशन के तौर पर इस तरह के काम का उसका यह पहला अनुभव है. अदालत ने यह भी दर्ज किया कि उस इलाक़े की इतनी गहराई तक खुदाई हो चुकी है कि दोबारा खुदाई के लिए कोई नया आयोग बनाना व्यावहारिक नहीं होगा. अदालत ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यह एक सबूत माना जाएगा. अदालत के आदेश के अनुसार साक्ष्य अधिनयम के तहत यह एक वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद दी गयी रिपोर्ट मानी जाएगी. अदालत का निष्कर्ष यह था कि अंतिम फ़ैसला देते समय बाकी सबूतों के साथ ही इसके निष्कर्षों पर भी विचार होगा. एएसआई की यह विस्तृत रिपोर्ट और फोटोग्राफ मुक़दमे के सभी पक्षों के पास उपलब्ध है. संक्षेप में उसका निचोड़ यह है कि खुदाई में मिले अवशेष उत्तर भारत में पाए जाने वाले मंदिरों से जुड़े विशिष्ट आकारों का संकेत देते हैं. इस निष्कर्ष की पुष्टि में उन तमाम सामग्री का उल्लेख है जो खुदाई में मिली. इनमें सजावटी ईंटें, दैवीय युगल, आमलक, द्वार चौखट, ईंटों का गोलाकार मंदिर, जल निकास का परनाला और एक विशाल ईमारत से जुड़े पचास खम्भे शामिल हैं. दैवीय युगल की तुलना शिव-पार्वती और गोलाकर मंदिर की तुलना पुराने शिव मंदिर से की गई है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि खुदाई में 13वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक के अवशेष मिले हैं. जो खंडहर खुदाई में मिले, उनमें इतिहास के कुषाण और शुंग काल से लेकर गुप्त काल और प्रारंभिक मध्य युग तक के अवशेष हैं. गोलाकार मंदिर सातवीं से दशवीं शताब्दी के बीच का माना गया. इसके बाद प्राम्भिक मध्य युग 11-12वीं शताब्दी की 50 मीटर उत्तर -दक्षिण इमारत का ढांचा मिला जो ज़्यादा समय तक नहीं रहा. इस ढांचे के ऊपर एक और विशाल इमारत का ढांचा है जिसकी फर्श तीन बार में बनी. यह रिहायशी इमारत न होकर सार्वजनिक उपयोग की इमारत थी. रिपोर्ट के अनुसार इसी इमारत के भग्नावशेष के ऊपर वह विवादित इमारत (मस्जिद) 16वीं शताब्दी में बनी. विवादित मस्जिद के ठीक नीचे मिले इस इमारत का आकार 50 गुना 30 मीटर उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम था. इसके 50 खम्भों के आधार मिले हैं. इसके केंद्र बिंदु के ठीक ऊपर विवादित मस्जिद के बीच का गुम्बद है, लेकिन अस्थायी मंदिर में भगवान राम की मूर्तियां रखी होने से उस जगह की खुदाई नहीं हो सकी.

रिपोर्ट के अनुसार खुदाई में नीचे 15 गुना 15 मीटर का एक उठा चबूतरा मिला. इसमें एक गोलाकार गड्ढा है और ऐसा लगता है कि वहाँ कोई महत्वपूर्ण वस्तु रखी थी. एएसआई की विस्तृत रिपोर्ट में अन्य स्थानों पर अन्य युग के कुछ ऐसे अवशेष भी मिले जिनके बारे में अदालत में हुई बहस के दौरान कहा गया कि वे बौद्ध एवं जैन मंदिर के अवशेष हो सकते हैं. अन्यत्र कुछ जानवरों की हड्डियां और अरबी में लिखा एक पत्थर भी मिला.


बाबर के शासनकाल में मस्जिद बनने का सबूत नहीं: न्यायमूर्ति अग्रवाल

अयोध्या मामले में फैसला सुनाने वाली लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों में से एक न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने अपने आदेश में अपने साथी न्यायमूर्ति एस.यू.खान के विपरीत लिखा है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि विवादित स्थल पर मस्जिद मुगल सम्राट बाबर के शासनकाल में निर्मित किया गया था। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा, "विवादित ढांचा मुसलमानों द्वारा हमेशा मस्जिद के रूप में माना गया। लेकिन यह साबित नहीं होता कि इसका निर्माण बाबर के शासनकाल में हुआ था।" न्यायमूर्ति अग्रवाल ने लिखा है कि हिंदू मान्यता और आस्था के अनुसार विवादित ढांचे के मध्य गुंबद का क्षेत्र भगवान राम का जन्मस्थान है। अग्रवाल ने कहा है, "यह घोषित किया जाता है कि तीनों गुंबद में से केंद्रीय गुंबद के तहत आने वाला क्षेत्र अभियोगी (सूट-5) से संबंधित है और बचाव पक्ष द्वारा उसमें किसी तरह की बाधा या हस्तक्षेप नहीं उत्पन्न किया जाएगा।"

न्यायमूर्ति अग्रवाल के फैसले के कुछ प्रमुख कथ्य निम्न हैं : 

* आंतरिक प्रकोष्ठ के अंदर का क्षेत्र दोनों समुदायों, यानी हिंदू (अभियोगी, सूट-5) मुस्लिम से संबंधित है, क्योंकि दशकों से इस परिसर का इस्तेमाल दोनों समुदायों द्वारा किया जा रहा था। 
* विवादित ढांचे को मुसलमानों द्वारा हमेशा मस्जिद के रूप में माना गया और उसी के अनुरूप वहां नमाज अदा की गई। लेकिन यह साबित नहीं होता कि यह मस्जिद बाबर के शासनकाल में 1528 में निर्मित की गई थी। 
* किसी अन्य सबूत के अभाव में यह कह पाना कठिन है कि यह विवादित ढांचा कब बना था और किसने बनवाया था। लेकिन यह स्पष्ट है कि इसका निर्माण मिशनरी जोसेफ टीफेंथलर के अवध इलाके में 1766-71 के बीच हुए दौरे के पूर्व हुआ था।
* विवादित ढांचे का निर्माण किसी गैर इस्लामिक ढांचे- एक हिंदू मंदिर को गिराने के बाद हुआ था।
* विवादित ढांचे के मध्य गुंबद के नीचे मूर्तियों को 22-23 दिसंबर, 1949 की रात रखा गया था। * बाहरी अहाते में राम चबूतरा, सीता रसोई एवं भंडार के तहत आने वाला क्षेत्र निर्मोही अखाड़े के नाम घोषित किया जाता है।

* बाहरी परिसर के अंदर का खुला क्षेत्र निर्मोही अखाड़ा और अभियोगी (सूट-5) के बीच बांटा जाएगा, क्योंकि इस क्षेत्र का इस्तेमाल आम तौर पर हिंदुओं द्वारा पूजा के लिए किया जाता रहा है। 
* अयोध्या अधिनियम-1993 के तहत भारत सरकार द्वार अधिकृत भूमि संबंधित पक्षों को इस तरीके से उपलब्ध कराया जाएगा ताकि सभी तीनों पक्ष उस क्षेत्र का इस्तेमाल कर सके।




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