Wednesday, 7 October 2015

चारण कवि दुरसाजी आढा रचित महाराणा प्रताप की प्रशस्ति के दोहे - संपूर्ण 'बिरद छहुंतरी')

दुर्शाजी आढ़ा नामक चारण कवि ने अकबर की सभा में अकबर के समक्ष खड़े होकर बिना डरे महाराणा प्रताप के नाम से 76 दुहे बना कर सुनाये थे, जो "बिरद छहुतरि" के नाम से जाना गया।

महा चारण कवि दुर्शा जी आढा
 

सिसोदिया शिरोमणि महाराणा प्रतापसिंहजी 

अलख धणी आदेश,धरमाधार दया निधे, बरणो सुजस बेस, पालक धरम प्रताप रो. (१)
गिर उंचो गिरनार, आबु गिर ओछो नही ; अकबर अघ अंबार, पुण्य अंबार प्रतापसीं. (२)
वुहा वडेरा वाट, वाट तिकण वेहणो विसद ; खाग, त्याग, खत्र वाट, पाले राण प्रतापसीं. (३)

अकबर गर्व न आण, हिन्दु सब चाकर हुआ ; दिठो कोय दहिवाण, करतो लटकां कठहडे. (४)
मन अकबर मजबूत, फूट हिन्दुआ बेफिकर ; काफर कोम कपूत, पकडो राण प्रतापसीं. (५)
अकबर कीना याद, हिन्दु नॄप हाजर हुआ ; मेद पाट मरजाद, पोहो न आव्यो प्रतापसीं. (६)
मलेच्छां आगळ माथ, नमे नही नर नाथरो, सो करतब समराथ, पाले राण प्रतापसी. (७)
कलजुग चले न कार, अकबर मन आ जस युंही ; सतजुग सम संसार, प्रगट राण प्रतापसीं. (८)
कदे न नमावे कंध, अकबर ढिग आवेने ओ ; सूरज वंश संबंध, पाले राण प्रतापसी. (९)
चितवे चित चितोड़, चित चिंता चिता जले ; मेवाड़ो जग मोड़, पुण्य धन प्रतापसीं. (१०)
सांगो धरम सहाय, बाबर सु भिड़ियो बहस ; अकबर पगमां आय, पड़े न राण प्रतापसी. (११)
अकबर कुटिल अनीत, और बटल सिर आदरे ; रघुकुल उतम रीत, पाले राण प्रतापसी. (१२)
लोपे हिन्दुलाज, सगपण राखे तुरक सु ; आर्य कुल री आज, पुंजी राण प्रतापसीं. (१३)
सुख हित शिंयाळ समाज, हिन्दु अकबर वश हुआ ; रोशिलो मॄगराज, परवश रहे न प्रतापसी. (१४)
अकबर फुट अजाण, हिया फुट छोडे न हठ ; पगां न लागत पाण, पण धर राण प्रतापसीं. (१५)
अकबर पत्थर अनेक, भुपत कैं भेळा कर्या ; हाथ नआवे हेक, पारस राण प्रतापसीं. (१६)
अकबर नीर अथाह, तहं डुब्या हिन्दु तुरक ; मेवाड़ो तिण मांह, पोयण राण प्रतापसीं. (१७)
जाणे अकबर जोर, तो पण ताणे तोर तीड ; आ बदलाय छे ओर, प्रीसणा खोर प्रतापसीं. (१८)
अकबर हिये उचाट, रात दिवस लागो रहे ; रजवट वट सम्राट, पाटप राण प्रतापसीं. (१९)
अकबर घोर अंधार, उंघांणां हिन्दु अवर ; जाग्यो जगदाधार, पहोरे राण प्रतापसीं. (२०)
अकबरीये एकार, दागल कैं सारी दणी ; अण दागल असवार, पोहव रह्यो प्रतापसीं. (२१)
अकबर कने अनेक, नम नम निसर्या नरपती ; अणनम रहियो एक, पणधर राण प्रतापसीं. (२२)
अकबर है अंगार, जाळे हिन्दु नृपजले ; माथे मेघ मल्हार, प्राछट दिये प्रतापसीं. (२३)
अकबर मारग आठ, जवन रोक राखे जगत ; परम धरम जस पाठ, पीठीयो राण प्रतापसीं. (२४)
आपे अकबर आण, थाप उथापे ओ थीरा ; बापे रावल बाण, तापे राण प्रतापसीं. (२५)
है अकबर घर हाण, डाण ग्रहे नीची दिसट ; तजे न उंची ताण, पौरस राण प्रतापसीं. (२६)
जग जाडा जुहार, अकबर पग चांपे अधिप ; गौ राखण गुंजार, पिले रदय प्रापसीं. (२७)
अकबर जग उफाण, तंग करण भेजे तुरक ; राणावत रीढ राण, पह न तजे प्रतापसीं. (२८)
कर खुशामद कुर, किंकर कंजुस कुंकरा ; दुरस खुशामद दुर, पारख गुणी प्रतापसीं. (२९)
हल्दीघाटी हरोळ, घमंड करण अरी घणा ;आरण करण अडोल, पहोच्यो राण प्रतापसीं. (३०)
थिर नृप हिन्दुस्तान, ला तरगा मग लोभ लग ; माता पुंजी मान, पुजे राण प्रतापसीं. (३१)
सेला अरी समान, धारा तिरथ में धसे ; देव धरम रण दान, पुरट शरीर प्रतापसीं. (३२)
ढग अकबर दल ढाण, अग अग जगडे आथडे ; मग मग पाडे माण, पग पग राण प्रतापसीं. (३३)
दळ जो दिल्ली हुंत, अकबर चढीयो एकदम ; राण रसिक रण रूह, पलटे किम प्रतापसीं. (३४)
चित मरण रण चाह, अकबर आधिनी विना ; पराधिन पद पाय, पुनी न जीवे प्रतापसीं. (३५)
तुरक हिन्दवा ताण, अकबर लागे एकठा ; राख्यो राणे माण, पाणा बल प्रतापसीं. (३६)
अकबर मच्छ अयाण, पुंछ उछालण बल प्रबल ; गोहिल वत गहेराण, पायो नीधी प्रतापसीं. (३७)
गोहिल कुळ धन गाढ, लेवण अकबर लालची ; कोडी दिये ना काढ, पणधर राण प्रतापसीं. (३८)
नित गुध लावण नीर, कुंभी सम अकबर क्रमे ; गोहिल राण गंभीर, पण न गुंधले प्रतापसीं. (३९)
अकबर दल अप्रमाण, उदयनेर घेरे अनय ; खागां बल खुमाण, पेले दलां प्रतापसीं. (४०)
दे बारी सुर द्वार, अकबरशा पडियो असुर ; लड़ियो भड़ ललकार, प्रोलां खोल प्रतापसीं. (४१)
उठे रीड अपार, पींठ लग लागां प्रिस ; बेढीगार बकार, पेठो नगर प्रतापसीं. (४२)
रोक अकबर राह, ले हिन्दुं कुकर लखां ; विभरतो वराह, पाड़े घणा प्रतापसीं. (४३)
देखे अकबर दुर, घेरा दे दुश्मन घणा ; सांगाहर रण सुर, पेड न खसे प्रतापसीं. (४४)
अकबर तलके आप, फते करण चारो तरफ ; पण राणो प्रताप, हाथ न चढे हमीरहट. (४५)
अकबर दुरग अनेक, फते किया निज फौज सुं ; अचल चले न एक, पाधर राण प्रतापसीं. (४६)
दुविधा अकबर देख, किण विध सुं घायल करे ; पवंगा उपर पेख, पाखर राण प्रतापसीं. (४७)
हिरदे उणा होत, सिर धुणा अकबर सदा ; दिन दुणा देशोत, पुणा वहे न प्रतापसीं. (४८)
कलपे अकबर काय, गुणी पुगी धर गौडियां ; मणीधर साबड़ मांय, पड़े न राण प्रतापसीं. (४९)
मही दाबण मेवाड, राड़ चाड़ अकबर रचे ; विषे विसायत वाड़, प्रथुल वाड़ प्रतापसीं. (५०)
बंध्यो अकबर बेर, रसत घेर रोके रिपु ; कन्द मूल फल केर, पावे राण प्रतापसीं. (५१)
भागे सागे भोम, अमृत लागे उभरा; अकबर तल आराम, पेखे राण प्रतापसीं. (५२)
अकबर जिसा अनेक, आय पड़े अनेक अरि ; असली तजे न एक, पकड़ी टेक प्रतापसीं. (५३)
लांघण कर लंकाळ, सादुळो भुखो सुवे ; कुल वट छोड़ क्रोधाळ, पैठ न देत प्रतापसीं. (५४)
अकबर मेगल अच्छ, मांजर दळ घुमे मसत ; पंचानन पल भच्छ, पटके छड़ा प्रतापसीं. (५५)
दंतीसळ सुं दूर, अकबर आवे एकलो ; चौड़े रण चकचूर, पलमें करे प्रतापसीं. (५६)
चितमें गढ चितोड़, राणा रे खटके रयण ; अकबर पुनरो ओड, पेले दोड़ प्रतापसीं. (५७)
अकबर करे अफंड, मद प्रचंड मारग मले ; आरज भाण अखंड, प्रभुता राण प्रतापसीं. (५८)
घट सुं औघट घाट, घड़ियो अकबर ते घणो ; ईण चंदन उप्रवाट, परीमल उठी प्रतापसीं. (५९)
बड़ी विपत सह बीर, बड़ी किरत खाटी बसु ; धरम धुरंधर धीर,पौरुष घनो प्रतापसीं. (६०)
अकबर जतन अपार, रात दिवस रोके करे ; पंगी समदा पार, पुगी राण प्रतापसीं. (६१)
वसुधा कुल विख्यात, समरथ कुल सीसोदिया ; राणा जसरी रात, प्रगट्यो भलां प्रतापसीं. (६२)
जीणरो जस जग मांही, ईणरो धन जग जीवणो ; नेड़ो अपजश नाही, प्रणधर राण प्रतापसीं. (६३)
अजरामर धन एह, जस रह जावे जगतमें ; दु:ख सुख दोनुं देह, पणीए सुपन प्रतापसीं. (६४)
अकबर जासी आप, दिल्ली पासी दूसरा ; पुनरासी प्रताप, सुजन जीसी सूरमा. (६५)
सफल जनम सदतार, सफल जोगी सूरमा ; सफल जोगी भवसार, पुर त्रय प्रभा प्रतापसीं. (६६)
सारी वात सुजाण, गुण सागर ग्राहक गुणा; आयोड़ो अवसाण, पांतरयो नह प्रतापसीं. (६७)
छत्रधारी छत्र छांह, धरमधार सोयो धरां ; बांह ग्रहयारी बांह, प्रत न तजे प्रतापसीं. (६८)
अंतिम येह उपाय, विसंभर न विसारिये ; साथे धरम सहाय, पल पल राण प्रतापसीं. (६९)
मनरी मनरे मांही, अकबर रहेसी एक ; नरवर करीये नांही, पुरण राण प्रतापसीं. (७०)
अकबर साहत आस, अंब खास जांखे अधम ; नांखे रदय निसास, पास न राण प्रतापसीं. (७१)
मनमें अकबर मोद, कलमां बिच धारे न कुट ; सपना में सीसोद, पले न राण प्रतापसीं. (७२)
कहैजो अकबर काह, सेंधव कुंजर सामटा ; बांसे से तरबांह, पंजर थया प्रतापसीं. (७३)
चारण वरण चितार, कारण लख महिमा करी ; धारण कीजे धार, परम उदार प्रतापसीं. ( ७४)
आभा जगत उदार, भारत वरस भवान भुज ; आतमसम आधार, पृथ्वी राण प्रतापसीं. (७५)
काव्य यथारथ कीध, बिण स्वारथ साची बिरद ; देह अविचल दिध, पंगी रूप प्रतापसीं. (७६)

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