Tuesday, 19 May 2015

हम अरुणा को न्याय दिलाने में क्यों नाकाम रहे ?

दिसंबर 2012 में एक मेडकिल छात्रा की मौत जघन्य सामूहिक बलात्कार के बाद हुई. इस घटना पर हमने पूरे देश को उबलते हुए देखा.
हमने दोषियों पर कार्रवाई की मांग की. इस घटना के असर से कानून को बदलते देखा, किशोर अपराधियों की सजा पर भी बहस हुई. इससे यही जाहिर हुआ कि हम न्याय चाहते हैं और हम न्याय होते हुए देखना भी चाहते हैं.
नवंबर, 1973 में मुंबई के केईएम अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग के साथ अस्पताल के ही एक वॉर्ड ब्वॉय ने अप्राकृतिक बलात्कार किया. इसके बाद उसने कुत्ते को बांधने वाली जंजीर से अरुणा का गला घोंटा और मरा हुआ समझकर छोड़ गया.
दूसरे लोगों को अरुणा का पता 11 घंटे बाद चला तब तक उसके शरीर से काफी खून निकल चुका था और वह लकवाग्रस्त हो चुकी थीं. कुछ साल बाद उन्हें ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया, लेकिन वो जीवित लाश की तरह बनी रहीं.

लूटपाट का आरोप लगा

अरुणा के साथ जब ये हादसा हुआ तब उनकी उम्र महज 26 साल थी. इस हादसे के 42 साल बाद 18 मई, 2015 को उनकी मौत हुई.
अरुणा शानबाग के साथ जघन्य अपराध को अंजाम देने वाले पर कभी बलात्कार का आरोप नहीं लगा. उस पर केवल लूटपाट और हत्या की कोशिश के आरोप लगे.


अरुणा को न्याय नहीं मिला. उसके परिवार वालों ने उसे नहीं अपनाया लेकिन उसके साथ अस्पताल में काम करने वाली नर्सों ने उसे अस्पताल में रखा और बाद की नर्सों ने ही उनकी देखभाल की जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक निभाई.
हादसे के वक्त लोगों ने गुस्सा जताया था और विरोध प्रदर्शन भी किया था, लेकिन क्या हम अरुणा को न्याय दिला पाए?
महिलाओं के साथ होने वाले अपराध के मामलों में वैसे भी ढिलाई देखने को मिलती है. 'चार दशक पहले तो महिलाओं को काफी कुछ झेलना पड़ता' - ऐसी राय रखने वाले कई लोग मिल जाएंगे.
बलात्कार हमारे पापुलर सिनेमा में मनोरंजन के रूप में दिखाया जाता रहा है और न्यायिक व्यवस्था भी अभियुक्त के बदले पीड़िता के व्यवहार में ख़ामियां निकालती रही है.

न्याय दिलाने की कोशिश

दिसंबर, 2012 के मामले में सभी दोषियों को गिरफ्तार किया गया और पीड़िता को न्याय देने की कोशिश की गई, वहीं अरुणा पर हमला करने वाले को लूटपाट के लिए सात साल क़ैद की सजा मिली और वह रिहा होने के बाद अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्रत था.


दरअसल उसे उसके असली गुनाह की सजा नहीं मिली. ये किसी महिला के लिए भयवाह अनुभव है कि उस पर हमला करने वाला आजाद है और फिर से किसी महिला पर हमने करने के लिए खुला घूम रहा है.
हालांकि अरुणा के मामले में इच्छामृत्युकी मांग भी हुई. ये मांग अच्छी नीयत से की गई थी, लेकिन इसने न्याय और बलात्कार के मसले को ढक दिया. चाहे वह पुरुष का हो या फिर महिला का, शारीरिक और यौन उत्पीड़न हर हाल में भारी अपराध है.
2012 की घटना ने बलात्कार को लेकर हमारी सोच को बदला. हम ये मानने को मज़बूर हुए कि बलात्कार को लेकर हमारी सोच पुराने ढर्रे वाली थी, पीछे ले जाने वाली थी.

सोच पर सवाल



2012 के मामले में भी कई राजनेताओं और सामाजिक नेताओं ने पीड़िता पर रात में निकलने का दोष मढ़ा था. लोगो ने ये भी कहा था कि उसने हद से बाहर निकलने की कीमत चुकाई.
पिछले कुछ सालों में हम लोगों ने ये भी सुना है कि चाउमिन खाने, जींस पहनने और मोबाइल फोन के इस्तेमाल से यौन उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं.
लोगों ने इन तर्कों को सही ठहराने की कोशिश भी की. हालांकि राहत की बात ये है कि ऐसे कथनों को खुले तौर पर ख़तरनाक, हास्यास्पद और बकवास ठहराया जाता रहा है.
अरुणा की मौत और उसका जीवन, दोनों ही हमें याद दिलाते रहेंगे कि लिंग और यौन उत्पीड़न को लेकर हमारी सोच कितनी ग़लत है.
बलात्कारी अगर पीड़िता के साथ शादी करने को तैयार हो तो उसे माफ़ी देने की राय रखने वाला प्रत्येक जज, महिलाओं के रात में घर से बाहर निकलने पर सवाल पूछने वाले इंवेस्टीगेटर, महिलाओं की स्कर्ट की लंबाई पूछने वाले हर वकील, ये सब के सब अपने मुवक्किल के आपराधिक व्यवहार को सही साबित करने की कोशिश करते हैं.


ये सब उदाहरण हमें अरुणा के जीवन और उसकी मौत की भयावह याद दिलाएंगे.
दर्पण में ये हमारा बदसूरत चेहरा है और हमें इसे पहचानना भी चाहिए और स्वीकार भी करना चाहिए.

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