Saturday, 18 July 2015

व्यापमं घोटाला : सब-कुछ लुटा के होश में आए...

मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के नाक तले व्यापमं घोटाला के व्यापक घटनाक्रम को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि 'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया? दिन में अगर चिराग जलाए तो क्या किया?
दिल्ली के खोजी पत्रकार अक्षय सिंह की 4 जुलाई शनिवार को झाबुआ में और कुछ ही घंटे बाद रविवार को जबलपुर मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. अरुण शर्मा की दिल्ली में मौत ने सबको चौंका दिया। फिर 6 जुलाई सोमवार तड़के भिंड निवासी ट्रेनी सब इंस्पेक्टर अनामिका कुशवाहा का तैरता शव मध्यप्रदेश के सागर में मिलने से रहस्य और गहरा गया। बेहतर भविष्य का सपना लिए व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) के तहत सरकारी नौकरियों और मेडिकल कॉलेजों में दाखिला के लिए घोटाले कर अपात्र धनवानों, राजनेताओं और ऊंची पहुंच के दम पर बिना काबिलियत मुकाम हासिल करने का जरिया रहा व्यापमं घोटाला। 
हाईकोर्ट की निगरानी में नवंबर 2013 में स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) का गठन किया गया। इस घोटाले में शिवराज सरकार के मंत्री से लेकर संतरी तक की संलिप्तता ने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' वाली कहावत को भी चरितार्थ कर दिया। कहीं न कहीं और किसी न किसी तरह से इस घोटाले से जुड़े चार दर्जन से अधिक लोगों की मौतें हो चुकी हैं। विपक्षी दलों और व्हिसिल ब्लोअरों पर भरोसा करें तो मौत का यह आंकड़ा 150 से भी अधिक है। करीब 3000 लोग आरोपी बनाए जा चुके हैं जिसमें 2000 की गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। कुछ जमानत पर हैं तो कुछ जेल में हैं। करीब 1000 लोग अभी भी फरार बताए जा रहे हैं। इतना कुछ होने के बाद अगर शिवराज सरकार ने केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) से जांच के लिए हामी भरी तो यह कहना लाजिमी है कि सब-कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया। इस मामले में शिवराज सरकार के साथ-साथ विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी और केंद्र में बैठी मोदी सरकार भी उतनी ही दोषी है। 
कहने का मतलब यह कि जिस वक्त यह केस जबलपुर हाईकोर्ट की निगरानी में एसआईटी के हवाले किया गया था उसी समय इसे सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई को सौंप दिया जाता तो शायद इतनी मौतों से जरूर बचा जा सकता था। ये तो वही हुआ कि शुरूआती दौर का कैंसर जिसका किसी बड़े अस्पताल में अच्छे डॉक्टर से इलाज हो जाता तो इस बात की संभावना प्रबल थी कि वह मिट भी सकता था, लेकिन स्थानीय अस्पतालों में छानबीन की प्रक्रिया में इतना लंबा वक्त लगा दिया गया कि वह अब पूरे शरीर में फैल गया जिसे दिल्ली के एम्स जैसे अस्पताल में भी जीवन रक्षक प्रणाली पर रखकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। 
व्यापमं घोटाले की जांच को सीबीआई को सौंपे जाने से पहले की जांच में दो तरह के दावे सामने आए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का कहना है कि उन्होंने घोटाले की भनक लगते ही जांच के आदेश दिए, जबकि व्हिसिल ब्लोअर आनंद राय का कहना है कि जनहित याचिका दायर करने के बाद ही जांच एसटीएफ को सौंपी गई और इससे बहुत पहले ही अलग-अलग थानों में करीब 300 मामले पहुंच चुके थे। इस घोटाले पर एक किताब 'व्यापमं गेट' भी सामने आई जो पूर्व निर्दलीय विधायक पारस सकलेचा ने लिखी है। पारस सकलेचा व्यापमं घोटाला के पहले विलन भी माने जाते हैं क्योंकि बतौर विधायक पारस सकलेचा ने सबसे पहले 2009 में मेडिकल कॉलेज में दाखिलों के दौरान होने वाली कथित धांधलियों को मध्यप्रदेश विधानसभा में उठाया था। सकलेचा ने अपनी किताब में इस घोटाले का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है और एसटीएफ की जांच पर भी सवाल खड़े किए हैं।
दरअसल, शिवराज सरकार व्यापमं घोटाले पर जिस तरह की गैरजिम्मेदारी और आपराधिक लापरवाही दिखाती रही, उसे ध्यान में रखते हुए अब उसके किसी भी कदम को शक-ओ-शुबहा के बिना देखना असंभव है। यह एक ऐसा घोटाला है जिसमें प्रदेश सरकार से जुड़े तमाम शक्ति केंद्र संदेह के घेरे में हैं। शिवराज कैबिनेट के सहयोगियों पर ही नहीं, मुख्यमंत्री के पीए तक पर गंभीर आरोप हैं। राज्यपाल जैसा संवैधानिक पद भी इन विवादों से अछूता नहीं रहा। यहां तक कि भाजपा सरकार के कर्ताधर्ता जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी प्रेरणा का मुख्य स्रोत बताते नहीं थकते, उसका सर्वोच्च नेतृत्व भी इन छींटों से नहीं बच सका है।
ऐसे में सबसे बड़ी जरूरत इस मामले की ऐसी जांच शुरू करवाने की थी जो इन सबकी पहुंच से ऊपर दिखती। इसका एक आसान सा तरीका यह हो सकता था कि जब इस घोटाले की व्यापकता सामने आई, तभी इसे सीबीआई को सुपुर्द कर दी जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक तरफ जहां मुख्यमंत्री शिवराज खुद घोटाले का भंडाफोड़ करने जैसे खोखले दावे करते रहे, वहीं दूसरी तरफ उनकी अगुवाई वाला प्रशासनिक तंत्र जांच के नाम पर लीपापोती में जुटा रहा। चाहे ढाई हजार से ज्यादा छात्रों को आरोपी बनाने की बात हो या मुख्यमंत्री के करीबी और ताकतवर लोगों को खुला छोड़े रखने की, ऐसे सैकड़ों वजहें हैं जो पूरी जांच प्रक्रिया को संदिग्ध बनाते हैं। सरकार ने ऐसे किसी भी वजहों पर संदेह दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया।

ज़ी स्पेशल

 प्रवीण कुमार

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