Thursday, 23 July 2015

"स्वन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" लोकमान्य तिलक

स्वाधीनता के प्रेरक  लोकमान्य तिलक


"स्वन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं  इसे लेकर रहूँगा" का उध्घोष करने वाले बल गंगाधर तिलक  का भारतीय स्वाधीनता संग्राम में शीर्ष स्थान रहा है | वे एक महान देशभक्त  और प्रखर राजनेतिक विचारक थे | भारत  की पुण्य भूमि  में जन्मे ऐसे महापुरुष लोकमान्य गंगाधर तिलक का जन्म महारास्ट्र के रत्नागिरी जिलान्तर्गत चिरवल नामक गाँव में १३ जुलाई १८५६ ई. को हुआ था | इनके पिताजी गंगाधर राव अध्यापक के साथ- साथ समाजसेवी भी थे | जब ये मात्र १० वर्ष के थे तो उनकी माता पार्वती बाई का स्वर्गवास  हो गया | माता की मृत्यु के सात वर्ष बाद पिता के सन्यासी होने के कारण तिलक अनाथ और असहाय हो गए, आपने अपनी प्रखर बुद्धी से आगे अध्ययन जरी रखा | कुशाग्र बुद्धी, कठोरे परिश्रम एवं कर्तव्य परायणता आदि गुणों के कारण उनके जीवन में परिस्तिथि वश उत्पन्न आभाव व कष्ट उनकी देश सेवा में कभी अवरोध नहीं बन सके|

तिलक ने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओ और अन्धविश्वासो का सदैव विरोध किया |१५ वर्ष की आयु में आपका विवाह तथी बाई से हुआ. उस समय उन्होंने दहेज़ न लेकर अपने ससुर से पढने के लिए पुस्तके मांगी थी. तिलक की गणित और संस्कृत में  महारत हासिल थी |बचपन में एक बार उन्होंने पिता को बाण भट्ट की कादम्बरी पढ़ते सुना तो वह दंग रह गए. प्रारंभ में एक  मराठी स्कूल में अध्यापक  का कार्य किया और उच्चच शिक्षा प्राप्त कर शिक्षा विभाग में सहायक उपशिक्षा निरीक्षक बन गए | अध्यापन कार्य करते हुए तिलक ने दो मराठी पत्र " केसरी और मरहट्टा " निकलना प्रारंभ किया | इनके माध्यम से उन्होंने लोगो में राजनेतिक चेतना जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया | सन १८८९ में तिलक कांग्रेस में शामिल हुए. उन्होंने इसके उदारवादी निति का तीव्र विरोध किया. तिलक ने  १८९१ में सरकार के " सहवास वे विरोधक " का इस आधार पर विरोध किया की विदेशी सरकार की जनता पर समाज सुधार थोपने का कोई अधिकार नहीं है | राष्ट्रीय जाग्रति और मनोबल में वृदि करने के उद्द्येश्य से उन्होंने गोवध विरोधी समितियों , अखाड़ो और लाठी क्लबो  की स्थापना की. वे स्वव्य्म अच्छे जिमनास्ट और कुशल तैरक तथा नाविक थे. भारत माँ को आजाद करने के लिए ब्रिटिश सत्ता के जुल्मो के खिलाफ वे हमेशा अपनी आवाज बुलंद करते रहे जिससे उन्हें अनेक बार जेल भी जाना पड़ा और भयंकर यातनाए भी सहनी पड़ी | जब महाराष्ट्र में प्लेग की महामारी और भुखमरी पड़ी तो सरकार की उदासीनता से क्रोधी होकर 22 जून १८९७ को विक्टोरिया राज्यारोहण समारोह के अवसर पर  पुणे के चाफेकर बंधुओ ने अंग्रेज प्लेग ऑफिसर को मार डाला. तिलक को इस अपराध का प्रेरक मानते हुए उन्हें डेढ़ वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी थी क्योंकि तिलक ने चाफेकर बंधुओ की फांसी की सजा का खुलकर विरोध किया था |

इस कारावास से तिलक राष्ट्रीय स्तर के लोकप्रिय नेता बन गए | बाल गंगाधर तिलक की लेखनी इतनी सशक्त थी की ब्रिटिश सता समाचार पत्र "केसरी" में छपे लेखो से परेशान रहती थी. जब ३० अप्रेल १९०८ की रात्रि में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फर में बम विस्फोट किया | इस विषय पर केसरी के मई व जून के चार अंको में प्रकाशित सम्पादकीय लेखो को राजद्रोहात्मक ठहराकर अंग्रेज जज ने तिलक को छ साल की सजा सुने |इससे स्पष्ट होता है की यह मुक़दमा केसरी में प्रकाशित लेखो के विरुद्ध था १९०५ में बंग भंग आन्दोलन का उन्होंने पूर्ण जोर शोर से विरोध किया. विपिनचंद्र और लाला लाजपत राय  भी उनके साथ हो लिए अब यह दल "बाल पाल लाल" के नाम से विख्यात हो गया |१९०७ में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम पंथियों और गरम पंथियों में खुला संघर्ष हो गया | इसके बाद तिलक ने कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया किन्तु वे राष्ट्रीय आन्दोलन को सदैव प्रेरणा देते रहे |

अंग्रेज सर्कार के गुप्तचर विभाग के लोग तिलक जी पर बराबर नजर रखते थे | बम विस्फोट और बम निर्माण में लगे क्रांतिवीरो से उनके संपर्क होने का सूत्र मिला | केसरी में छपे सम्पादकीय ने इस आग में घी का कार्य किया फलतः २४ जून १९०८ को तिलक जी को गिओरफ़्तर कर लिया गया. उन्हें ६ वर्ष का कारावास का दंड देकर माडले (म्यामार) जेल  में भेज दिया गया | आपने कारावास के दौरान गीता का भाष्य रहस्य और " आर्कटिक होम ऑफ़ दी वेदाज" जैसी कालजयी कृतियों की रचना की |

उनमे लोगो को संगठित करने की अपूर्व क्षमता थी. गणपति एव शिवाजी उत्सव से उन्होंने संपूर्ण देश को एक सूत्र में पिरो दिया था | एक कट्टर हिन्दू होते हुए भी वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे | तभी तो महात्मा गाँधी जी ने उन्हें " लोकमान्य" कहकर विभूषित किया १९१६ में उन्होंने ऐनी बीसेंट द्वारा स्थापित होमेरुल लीग की गतिविधयो में सक्रीय रूप से भाग लिया १९१८ के पश्चात् उनके स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी, १ अगस्त १९२० को इस कथन के साथ " यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता | स्वराज्य हमारे अस्तितव्य के लिए अनिवार्य है उनके प्राण पखेरू उड़ गए | तिलक जी ने कहा था " राष्ट्र  की स्वाधीनता मुझे सर्वाधीक प्रिय है यदि इश्वर मुझे मुक्ति और स्वर्ग का राज्य दे तो भी में उसे छोड़कर इश्वर से स्वाधीनता की ही याचना करूँगा | " लोकमान्य का त्याग, बलिदान सदैव  प्रत्येक राष्ट्रभक्त को प्रेरणा देता रहेगा" |

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