Thursday, 5 February 2015

कहानी राजा भरथरी (भर्तृहरि) की


गोपीचंद और भरथरी (भर्तृहरि) की गुफा - उज्जैन  :-



उज्जैन में  भरथरी  की गुफा स्थित है।  इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भरथरी ने तपस्या की थी। यह गुफा शहर से बाहर एक सुनसान इलाके में है।  गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। जब हम इस गुफा के अंदर जाते हैं तो सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है। गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखनी होती है।  यहाँ पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह  गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भरथरी का भतीजा था।


Raja Bharthhari ki Gufa - Ujjain
 गोपीचंद और  भर्तृहरि कि गुफा का मुख्य प्रवेश द्वार 
यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा। यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।

Raja Bharthhari ki Gufa - Ujjain
गौर से देखने पर आपको गुफा के अंत में एक गुप्त रास्ता दिखाई देगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से चारो धामों को रास्ता जाता है 

पत्नी के धोखे से आहत राजा भरथरी के साधू बनने कि कहानी :-

उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था। उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भरथरी विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। प्रचलित कथाओं के अनुसार भरथरी की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भरथरी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए थे।                                                         
Raja Bharthari
राजा  भरथरी कि प्रतिमा 
कथाओं के अनुसार भरथरी अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर काफी मोहित थे और वे उस पर अंधा विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भरथरी ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
Raja bharthari gufa 1
पहली गुफा में जाने का रास्ता जहा कि राजा भरथरी ने तपस्या करी 
यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया।रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।
Gopichand ki gufa
गोपीचंद कि गुफा 
राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भरथरी ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भरथरी के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भरथरी ने 12  वर्षों तक तपस्या की थी।
Raja Bharthari ki Gufa
वह स्थान जहा भरथरी ने 12  वर्ष तपस्या कि 
राजा भरथरी की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भरथरी वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भरथरी पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भरथरी ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भरथरी के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भरथरी की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भरथरी की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।
Bharthari cave - Ujjain
छत पर बना हुआ राजा भरथरी के पंजे का निशान 



भरथरी ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भरथरी ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।



गुरु गोरखनाथ के द्वारा शिष्य भरथरी  (भर्तृहरि) की परीक्षा :-

Guru Gorakhnath
गुरु गोरखनाथ 
उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था।लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे  थे।

एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’ गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा, ‘भरथरी! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।' राजा भरथरी ंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से क, ‘देखा! भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।'

शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।' थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी ो महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भरथरी युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भरथरी े काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है। शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी  हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।' भरथरी अपने  निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान  की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।' अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।

‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया?  छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।' गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।' भरथरी बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।' गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की। भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भरथरी, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो। भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।' गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भरथरी! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।' इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।'

गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।'

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