Monday, 29 February 2016

वर्ष 2016-17 का बजट की मुख्य

क्या महंगा और क्या सस्ता...

अरुण जेटली ने वर्ष 2016-17 का बजट पेश किया। जानिए इस बार के बजट में क्या महंगा हुआ और क्या सस्ता।

महंगा :  सर्विस टैक्स बढ़ाकर सरकार ने एक तरह से सेवा विलासिता से जुड़ी सभी चीजें महंगी कर दी हैं। सर्विस टैक्स अब 14.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया गया है। 

सिगरेट, सिगार, सभी तरह की कारें महंगी हुईं, कोयला, गुटखा (पान मसाला), तंबाकू उत्पाद (बीड़ी छोड़कर सभी सिगरेट और सिगार), सोने एवं हीरे के आभूषण, एक करोड़ से अधिक आय पर 15 फीसदी सरचार्ज लगाया। इसके अलावा सभी तरह की ब्रांडेड रेडीमेड कपड़े, बीमा पॉलिसी, सिनेमा, केबल, रेस्टोरेंट में खाना, और कोयला महंगे हो गए हैं। 
सस्ता : सरकार ने आम जनता को ज्यादा राहत नहीं दी है।  विकलांगों के सहायक उपकरण, डायलिसिस उपकरण, 50 लाख तक पहला घर लेने पर 50 हजार रुपए तक की ब्याज में छूट।

                


* महंगा : सर्विस टैक्स बढ़ाकर सरकार ने एक तरह सेवा से जुड़ी सभी चीजें महंगी कर दी हैं। सर्विस टैक्स अब 14.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 फीसदी कर दिया गया है। इसके अलावा सभी तरह की बीमा पॉलिसी, सिनेमा, केबल, रेस्टोरेंट में खाना, कारें, सिगरेट, सिगार, गुटखा, कोयला, सोने और हीरे के आभूषण महंगे हो गए हैं। 
* सस्ता : सरकार ने लोगों को ज्यादा राहत नहीं दी है। 50 लाख तक घर पर ब्याज में छूट, विकलांगों के सहायक उपकरण, डायलिसिस उपकरण सस्ते मिलेंगे। 
*व्यक्तिगत आयकर स्लैब में कोई बदलाव नहीं।
*देश में कालाधन रखने वालों के लिए कर-कानून अनुपालन के लिए 4 माह का अवसर। उन पर लगेगा 45 प्रतिशत का कर और ब्याज।
*5 लाख रुपए से कम की आय वाले आयकरदाताओं को राहत। धारा 87 एक के तहत छूट की सीमा 2,000 रुपए से बढ़ाकर 5,000 रुपए की गई।
*आवास किराए पर कटौती की सीमा 20,000 रुपए से बढ़कर 60,000 रुपए हुई।
*पुराने कर मामलों पर एकबारगी विवाद निपटान योजना। जुर्माना, ब्याज नहीं लगेगा।
*राजस्व सचिव की अगुवाई वाली उच्चस्तरीय समिति पिछली तारीख से कर कानून का इस्तेमाल कर सामने आने वाली नई देनदारियों को देखेगी।
*नई विनिर्माण इकाइयों के लिए कॉर्पोरेट कर की दर 25 प्रतिशत तय की गई।
*कोयला, लिग्नाइट और पीट पर स्वच्छ ऊर्जा उपकर 200 रुपए से बढ़ाकर 400 रुपए प्रति टन किया गया।
*पहला घर खरीदने वालों को 35 लाख रुपए तक के ऋण पर 50,000 रुपए की अतिरिक्त कटौती मिलेगी। घर की कीमत 50 लाख रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए।
*2017-18 तक राजकोषीय घाटा सकल घरेल उत्पाद के 3 प्रतिशत पर रखने का लक्ष्य।
*2015-16 में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.9 प्रतिशत। 2016-17 में यह 3.5 प्रतिशत होगा।
*2015-16 में राजस्व घाटा 2.8 प्रतिशत।
*2015-16 में चालू खाते का घाटा 14.4 अरब डॉलर या जीडीपी के 1.4 प्रतिशत पर।
*विदेशी मुद्रा भंडार 350 अरब डॉलर के अपने उच्चस्तर पर।
*बजट में न बदलाव वाले स्तंभों को रेखांकित किया गया। इनमें 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना, बुनियादी ढांचा, निवेश और सुधार शामिल।
*मनरेगा के लिए अभी तक का सर्वाधिक 38,500 करोड़ रुपए का आवंटन। 
*डायलिसिस के कुछ उपकरणों पर मूल सीमा शुल्क, उत्पाद सीवीडी की छूट।
*सरकार एक मॉडल शॉप्स और एस्टाब्लिशमेंट विधेयक जारी करेगी। छोटी खुदरा दुकानें सातों दिन खुलेंगी।

*1 मई 2018 तक 100 प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण।
*सरकार नए कर्मचारियों के लिए पहले 3 साल का 8.33 प्रतिशत का ईपीएफ योगदान देगी।
*स्टार्टअप्स को 3 साल तक 100 प्रतिशत कर छूट, लेकिन मैट की छूट नहीं। मैट अप्रैल 2016-2019 तक लेगा।
*आधार कार्यक्रम को सांविधिक दर्जा।
*बुनियादी ढांचा परिव्यय 2.21 लाख करोड़ रुपए।
*किसान कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपए। 5 साल में सिंचाई पर 86,500 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे।
*नाबार्ड के तहत 20,000 करोड़ रुपए का सिंचाई कोष बनाया जाएगा।
*गरीबों को एलपीजी कनेक्शन के लिए 2,000 करोड़ रुपए। महिलाओं के लिए एमपीजी कनेक्शन की योजना।
*स्टैंडअप इंडिया के लिए 500 करोड़ रुपए का आवंटन।
*सड़कों और राजमार्गों के लिए 55,000 करोड़ रुपए का आवंटन। करमुक्त बांड जारी कर सकता है एनएचएआई।



कल्याणकारी महाशिवरात्रि व्रत


नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्वचिषे। 
अन्यौस्तेऽअस्मन्तपन्तु हेतय: पावकोऽअस्मभ्य ॐ शिवो भव।। 

हे परमेश्वर। आपके दुखहर्ता स्वरूप को नमन है, आपके ज्ञाता स्वरूप को नमन है, आपके प्रकाशदाता स्वरूप को नमन है। ‍आपकी दंड व्यवस्था हमसे भिन्न दूसरे दुष्ट पुरुषों के लिए तपाने वाली हो और आपका पवित्र स्वरूप हमारा कल्याण करें।। 



कृष्ण पक्ष में हरेक चंद्र मास का चौदहवाँ दिन या अमावस्या से एक दिन पूर्व शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक पंचांग वर्ष में होने वाली सभी बारह शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि जो फरवरी-मार्च के महीने में पड़ती है सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस रात्रि में इस ग्रह के उत्तरी गोलार्थ की दशा कुछ ऐसी होती है कि मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से ऊर्जा ऊपर की ओर चढ़ती है। 
यह एक ऐसा दिन होता है जब प्रकृति व्यक्ति को उसके आध्यात्मिक शिखर की ओर ढकेल रही होती है। इसका उपयोग करने के लिए इस परंपरा में हमने एक खास त्योहार बनाया है जो पूरी रात मनाया जाता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस त्योहार का मूल मकसद यह निश्चित करना है कि ऊर्जाओं का यह प्राकृतिक चढ़ाव या उमाड़ अपना रास्ता पा सके।

वे लोग जो अध्यात्म मार्ग पर हैं उनके लिए महाशिवरात्रि बहुत महत्वपूर्ण है। योग परंपरा में शिव की पूजा ईश्वर के रूप में नहीं की जाती बल्कि उन्हें आदि गुरु माना जाता है, वे प्रथम गुरु हैं जिनसे ज्ञान की उत्पति हुई थी। कई हजार वर्षों तक ध्यान में रहने के पश्चात एक दिन वे पूर्णतः शांत हो गए, वह दिन महाशिवरात्रि का है। उनके अंदर कोई गति नहीं रह गई और वे पूर्णतः निश्चल हो गए। इसलिए तपस्वी महाशिवरात्रि को निश्चलता के दिन के रूप में मनातें हैं। 



महाशिवरात्रि व्रत कल्याणकारी है

सुसंस्कारों की जननी वेदगर्भा, जीवन-मृत्यु व ईश्वर की सत्ता का सतत्‌ अनुभव व प्रत्यक्ष दर्शन कराने वाली भारतीय भूमि धन्य है। जो त्रिगुणात्मक (रज, सत, तम) शक्ति ईश्वर की आराधना के माध्यम से व्यक्ति को मनोवांछित फल दे उसे मोक्ष के योग्य बना देती है। ऐसा ही परम कल्याणकारी व्रत महाशिवरात्रि है जिसके विधि-पूर्वक करने से व्यक्ति के दुःख, पीड़ाओं का अंत होता है और उसे इच्छित फल पति, पत्नी, पुत्र, धन, सौभाग्य, समृद्धि व आरोग्यता प्राप्त होती है तथा वह जीवन के अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है। 

ज्योतिषीय दृष्टि से चतुदर्शी (14) अपने आप में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण तिथि है। इस तिथि के देवता हैं, जिसका योग 1+4=5 हुआ अर्थात्‌ पूर्णा तिथि बनती है। साथ ही कालपुरुष की कुण्डली में पाँचवाँ भाव प्रेम भक्ति का माना गया है। अर्थात्‌ इस व्रत को जो भी प्रेम भक्ति के साथ करता है उसके सभी वांछित कार्य भगवान शिव की कृपा से पूर्ण होते हैं।

इस व्रत को बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री व पुरुष, भक्ति व निष्ठा के साथ कर सकते हैं। इस व्रत से संबंधित कई जनश्रुतियाँ तथा पुराणों में अनेक प्रसंग हैं। जिसमें प्रमुख रूप से शिवलिंग के प्रकट होने तथा शिकारी व मृग परिवार का संवाद है। निर्धनता व क्षुधा से व्याकुल जीव हिंसा को अपने गले लगा चुके उस शिकारी को दैवयोग से महाशिवरात्रि के दिन खाने को कुछ नहीं मिला तथा सायंकालीन वेला मे सरोवर के निकट बिल्वपत्र में चढ़ कर अपने आखेट की लालसा से रात्रि के चार पहर अर्थात्‌ सुबह तक बिल्वपत्र को तोड़कर अनजाने में नीचे गिराता रहा जो शिवलिंग पर चढ़ते गए। 

इस व्रत में रात्रि जागरण व पूजन का बड़ा ही महत्त्व है इसलिए सांयकालीन स्नानादि से निवृत्त होकर यदि वैभव साथ देता हो तो वैदिक मंत्रों द्वारा प्रत्येक पहर में वैदिक ब्राह्मण समूह की सहायता से पूर्वा या उत्तराभिमुख होकर रूद्राभिषेक करवाना चाहिए। इसके पश्चात्‌ सुगंधित पुष्प, गंध, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप-दीप, भाँग, नैवेद्य आदि द्वारा रात्रि के चारों पहर में पूजा करनी चाहिए। किन्तु जो आर्थिक रूप से शिथिल हैं उन्हें भी श्रद्धा व विश्वासपूर्वक किसी शिवालय में या फिर अपने ही घर में उपरोक्त सामग्री द्वारा पार्थिव पूजन प्रत्येक पहर में करते हुए 'ऊँ नमः शिवाय' का जप करना चाहिए। 

यदि अशक्त (किसी कारण या परेशानी) होने पर सम्पूर्ण रात्रि का पूजन न हो सके तो पहले पहर की पूजा अवश्य ही करनी चाहिए। इस प्रकार अंतिम पहर की पूजा के साथ ही समुचित ढंग व बड़े आदर के साथ प्रार्थना करते हुए संपन्न करें। तत्पश्चात्‌ स्नान से निवृत्त होकर व्रत खोलना यानी पारण करना चाहिए। 

इस व्रत में त्रयोदशी विद्धा (युक्त) चतुर्दशी तिथि ली जाती है। पुराणों के अनुसार भगवान शिव इस ब्रह्माण्ड के संहारक व तमोगुण से युक्त हैं जो महाप्रलय की बेला में तांडव नृत्य करते हुए अपने तीसरे नेत्र से ब्रह्माण्ड को भस्म कर देते हैं। अर्थात्‌ जो काल के भी महाकाल हैं जहाँ पर सभी काल (समय) या मृत्यु ठहर जातें हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की गति वहीं स्थित या समाप्त हो जाती है। 

रात्रि की प्रकृति भी तमोगुणी है, जिससे इस पर्व को रात्रि काल में मनाया जाता है। भगवान शंकर का रूप जहाँ प्रलयकाल में संहारक है वहीं भक्तों के लिए बड़ा ही भोला,कल्याणकारी व वरदायक भी है जिससे उन्हें भोलेनाथ, दयालु व कृपालु भी कहा जाता है। अर्थात्‌ महाशिवरात्रि में श्रद्धा और विश्वास के साथ अर्पित किया गया एक भी पत्र या पुष्प पापों को नष्ट कर पुण्य कर्मों को बढ़ा भाग्योदय करता है। इसीलिए इसे परम उत्साह, शक्ति व भक्ति का पर्व कहा जाता है।

इसी प्रकार मास शिवरात्रि का व्रत भी है जो चैत्रादि सभी महीनों की कृष्ण चतुर्दशी को किया जाता है। इस व्रत में त्रयोदशी युक्त (विद्धा) अर्थात्‌ रात्रि तक रहने वाली चतुर्दशी तिथि का बड़ा ही महत्त्व है। अतः त्रयोदशी व चतुदर्शी का योग बहुत शुभ व फलदायी माना जाता है। यादि आप मासिक रखना चाह रहें हैं तो इसका शुभारम्भ दीपावली या मार्गशीर्ष मास से करें तो शुभ फलदायी रहता है।

'ॐ नमः शिवाय' : दिव्य पवित्र सुंदर मंत्र


ॐ इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान सर्वव्यापी प्रभु शिव ही प्रतिष्ठित हैं। ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्ष रूप ब्रह्म हैं, वे सब 'नमः शिवाय' इस मंत्र में क्रमशः स्थित हैं। सूक्ष्म षडाक्षर मंत्र में पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात्‌ भगवान शिव स्वभावतः वाच्य और वाचक भाव से विराजमान हैं। अप्रमेय होने के कारण शिव वाच्य है और मंत्र उनका वाचक माना गया है।
यदि भगवान विश्वनाथ न होते तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि प्रकृति जड़ है और जीवात्मा अज्ञानी। अतः इन्हें प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं। उनके बंधन और मोक्ष भी देखे जाते हैं। अतः विचार करने से सर्वज्ञ 
परमात्मा शिव के बिना प्राणियों के आदिसर्व की सिद्धि नहीं होती। जैसे रोगी वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।

महिषासुर कौन था, जानिए उसकी कथा...

जेएनयू का 'महिषासुर' अब संसद तक पहुंच गया है। वामपंथी छात्रों ने जेएनयू में 2013 में शहादत दिवस मनाया था जिसमें देवी ‍दुर्गा का अपमान किया गया था। संसद में इस मुद्दे पर तीखा बवाल मचा हुआ है। जब केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जेएनयू के पर्चे का संसद में उल्लेख किया तो विपक्ष ने हंगामा मचा दिया। स्मृति ने अपने भाषण में देवी दुर्गा के अपमान का मुद्दा उठाया था। आखिर कौन है यह महिषासुर जानिए, इसकी कहानी...




जिसने भी देवी दुर्गा का अपमान किया है उसे इसकी सजा जरूर मिलेगी। ऐसा कहा जाता है कि माता के गण अदृश्य रूप में विद्यमान रहते हैं। उनके गणों में भैरव और भैरवी प्रमुख हैं। माता दुर्गा के आगे हनुमान और पीछे भैरव की सवारी चलती है। वे लोग जिन्होंने कभी माता के बारे में जाना और समझा नहीं, वे उनके बारे में कुछ भी सोच सकते हैं। ऐसे लोग से कहना है कि वे हिम्मत दिखाएं किसी अन्य धर्म के देवता या पैगंबर के बारे में बोलने की।

पहली सती जो यज्ञ की आग में कूदकर भस्म हो गई। इसी माता सती ने पार्वती के रूप में नया जन्म लिया। फिर थीं उमा और काली। माता दुर्गा को सदाशिव की अर्धांगिनी कहा जाता है। उन्होंने ही मधु और कैटभ का वध किया था। उन्होंने ही शुम्भ और निशुम्भ का भी वध किया था। उन्होंने ही महिषासुर का भी वध किया था। महिषासुर के वध के कारण माता महिषासुर मर्दिनी कहलाई।
कौन था महिषासुर ? 
रम्भासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। इसकी उत्पत्ति पुरुष और महिषी (भैंस) के संयोग से हुई थी इसीलिए उसे महिषासुर कहा जाता था। उसने अमर होने की इच्छा से ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। ब्रह्माजी उसके तप से प्रसन्न हुए। वे हंस पर बैठकर महिषासुर के निकट आए और बोले- 'वत्स! उठो, इच्छानुसार वर मांगो।' महिषासुर ने उनसे अमर होने का वर मांगा।

ब्रह्माजी ने कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, जो कुछ भी चाहो, मैं तुम्हें प्रदान कर सकता हूं क्योंकि जन्मे हुए प्राणी का मरना तय होता है। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु' कहकर अपने लोक चले गए। 
वर प्राप्त करके लौटने के बाद महिषासुर समस्त दैत्यों का राजा बन गया। उसने दैत्यों की विशाल सेना का गठन कर पाताल लोक और मृत्युलोक पर आक्रमण कर समस्त को अपने अधीन कर लिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भगवान विष्णु और शिव ने भी देवताओं का साथ दिया लेकिन महिषासुर के हाथों सभी को पराजय का सामना करना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया। वह त्रिलोकाधिपति बन गया।
भगवान विष्णु ने कहा ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया।
भगवती दुर्गा हिमालय पर पहुंचीं और अट्टहासपूर्वक घोर गर्जना की। महिषासुर के असुरों के साथ उनका भयंकर युद्ध छिड़ गया। एक-एक करके महिषासुर के सभी सेनानी मारे गए। फिर विवश होकर महिषासुर को भी देवी के साथ युद्ध करना पड़ा। महिषासुर ने नाना प्रकार के मायिक रूप बनाकर देवी को छल से मारने का प्रयास किया लेकिन अंत में भगवती ने अपने चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया।

Sunday, 28 February 2016

रणछोड़भाई रबारीः पाक सेना को धूल चटाने में निभाई अहम भूमिका

आइए जानते हैं 112 साल तक जीवित रहने वाले रणछोड़भाई रबारी के कारनामे की। 
उनके सम्मान में भारत ने एक बॉर्डर पोस्ट का नामकरण उनके नाम पर किया है।

punjabkesari

बात जब भारत और पाकिस्तान की हो, तो हर भारतीय के खून में उबाल सा आ जाता है। जब-जब भारत के वीर सपूतों के किस्से सुनाए जाते हैं, तो इस देश का बच्चा-बच्चा देश के लिए समर्पित हो जाता है।
जिस व्यक्ति की कहानी मैं साझा करने जा रहा हूं, वैसे तो वह एक साधारण आम आदमी हैं। लेकिन  1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान के युद्ध में भारतीय सेना का ‘मार्गदर्शक’ बन कर उन्होंने सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिकों को धूल चटा दी थी।
रणछोड़भाई का जन्म पेथापुर गथडो गांव में हुआ था। पेथापुर गथडो विभाजन के चलते पाकिस्तान में चला गया। रणछोड़भाई ने विभाजन के बाद कुछ वक़्त पाकिस्तान में ही गुज़ारा, लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों की प्रताड़ना से तंग आकर बनासकांठा (गुजरात) में बस गए थे।
1965 में कच्छ क्षेत्र में कई गांवों पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा कर लिया था। इस जंग में भारत को अपने 100 भारतीय सैनिक गंवाने पड़े थे।
सेना की दूसरी टुकड़ी का तीन दिन में छारकोट तक पहुंचना जरूरी हो गया था। इस दुर्गम इलाके के बारे में रणछोड़भाई रबारी से बेहतर कोई नहीं बता सकता था। ऐसी विकट स्थिति में रणछोड़भाई ने स्थानीय ग्रामीणों और उनके रिश्तेदारों से दुश्मनों के बारे में जानकारी एकत्र कर भारतीय सेना की मदद की थी।

रणछोड़भाई को उन इलाक़ों के एक-एक रास्तों की जानकारी थी। वह निडर होकर उन कस्बाई इलाकों में 

जाते थे। और वहां के स्थानीय लोगों से पाकिस्तानी सैनिकों के लोकेशन की जानकारी एकत्र करते थे।

इतना ही नहीं, उन्होंने पाक सैनिकों से नजर बचाकर भारतीय सेना तक यह भी जानकारी पहुंचाई थी कि 1200 पाकिस्तानी सैनिकों की एक टुकड़ी आमुक कस्बे में हमले के फिराक में जमा है। यह जानकारी भारतीय सेना के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण थी। सेना ने उन पर हमला कर विजय प्राप्त की थी।
1971 में युद्ध छिड़ जाने पर रणछोड़भाई ने अपने साहस का परिचय दिया। वह ऊंट पर सवार होकर पाकिस्तान की ओर गए। घोरा क्षेत्र में छुपी पाकिस्तानी सेना के ठिकानों की जानकारी लेकर लौटे। उनके बताए गए रास्तों के आधार पर ही भारतीय सेना ने पाकिस्तान को धूल चटाई थी। जंग के दौरान गोला-बारूद खत्म होने पर उन्होंने सेना को बारूद पहुंचाने का काम भी किया।
इन सेवाओं के लिए उन्हें राष्ट्रपति मेडल सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। बहादुरी भरे प्रयासों के लिए उन्हें जनरल सैम मानेकशॉ ने सम्मानित किया था। जनरल सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारत ने सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त की था। इसके परिणामस्वरूप ही बांग्लादेश का जन्म हुआ था।
जनरल सैम रणछोड़भाई को असली हीरो मानते थे। उनके और रणछोड की नज़दीकियों का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जनरल सैम ने रणछोड को अपने साथ डिनर के लिए आमंत्रित किया था। जनवरी, 2013 में 112 वर्ष की उम्र में रणछोड़भाई रबारी का निधन हो गया था।
ऐसे साहसी, निडर भारत माता के सपूत को मेरा दिल से सलाम। जिनके योगदान की वजह से भारतीय सेना ने दुश्मन सेना को धूल चटाई।

राष्ट्रीयता और समाजवाद : आचार्य नरेन्द्रदेव.

भारत में राष्ट्रीयता और समाजवाद का जन्म कोई क्षणिक घटना नहीं थी। इसके पीछे वर्षों का इतिहास रहा है। प्राचीन काल में भारत की आर्थिक, सामाजिक स्थितियां क्या थी; कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत पर विदेशी व्यापारियों की नज़र किस प्रकार गड़ी रही; किस प्रकार एक के बाद एक विदेशी, व्यापार करने के बहाने भारत को लूटते रहे; उसकी आर्थिक दशा को कमज़ोर बनाने में लगे रहे-ये समस्त स्थितियां ही राष्ट्रीयता की जननी बनी। स्वराज और स्वाभिमान की भावना ने ही दुर्लभ देशों में राष्ट्रीयता की लहर प्रवाहित की थी। भारत में अंग्रेजी शासन के पश्चात् देशवासियों में राष्ट्रीयता के उदय और तत्कालीन घटनाओं का इतिहास ‘राष्ट्रीयता और समाजवाद’ पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। पहली बार यह पुस्तक ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी से विक्रम संवत 2006 में प्रकाशित हुई। लेखक ने शिक्षा, संस्कृति, राष्ट्रीयता, समाजवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों पर उस समय जो विचार व्यक्त किये थे, वे आज के संदर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के स्वामी आचार्य नरेन्द्रदेव (1889-1956) अध्यापक के रूप में उच्च कोटि के निष्ठावान अध्यापक और महान् शिक्षाविद् थे। काशी विद्यापीठ के आचार्य बनने के बाद से यह उपाधि उनके नाम का ही अंग बन गई। देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में खींच लाया और भारत की आर्थिक दशा व गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया।


 राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास

बहुत प्राचीन काल से भारतवर्ष का विदेशों से व्यापार हुआ करता था। यह व्यापार स्थल मार्ग और जल मार्ग दोनों से होता था। इन मार्गों पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिए विविध राष्ट्रों में समय-समय पर संघर्ष हुआ करता था। जब इस्लाम का उदय हुआ और अरब, फारस मिस्र और मध्य एशिया के विविध देशों में इस्लाम का प्रसार हुआ, तब धीरे-धीरे इन मार्गों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया और भारत का व्यापार अरब निवासियों के हाथ में चला गया। अफ्रीका के पूर्वी किनारे से लेकर चीन समुद्र तक समुद्र तट पर अरब व्यापारियों की कोठियां स्थापित हो गईं। यूरोप में भारत का जो माल जाता था वह इटली के दो नगर जिनोआ और वेनिस से जाता था। ये नगर भारतीय व्यापार से मालामाल हो गए। वे भारत का माल कुस्तुन्तुनिया की मंडी में खरीदते थे। इन नगरों की धन समृद्धि को देखकर यूरोप के अन्य राष्ट्रों को भारतीय व्यापार से लाभ उठाने की प्रबल इच्छा उत्पन्न इस इच्छा की पूर्ति में सफल न हो सके। बहुत प्राचीन काल से यूरोप के लोगों का अनुमान था कि अफ्रीका होकर भारतवर्ष तक समुद्र द्वारा पहुंचने का कोई न कोई मार्ग अवश्य है। चौदहवीं शताब्दी में यूरोप में एक नए युग का प्रारंभ हुआ।

 नए-नए भौगोलिक प्रदेशों की खोज आरंभ हुई। कोलम्बस ने सन् 1492 ईस्वी में अमेरिका का पता लगाया और यह प्रमाणित कर दिया कि अटलांटिक के उस पार भी भूमि है। पुर्तगाल की ओर से बहुत दिनों से भारतवर्ष के आने के मार्ग का पता लगाया जा रहा था। अंत में, अनेक वर्षों के प्रयास के अनंतर सन् 1498 ई. में वास्कोडिगामा शुभाशा अंतरीप को पार कर अफ्रीका के पूर्वी किनारे पर आया; और वहाँ से एक गुजराती नियामक को लेकर मालाबार में कालीकट पहुंचा।

 पुर्तगालवासियों ने धीरे-धीरे पूर्वी व्यापार को अरब के व्यापारियों से छीन लिया। इस व्यापार से पुर्तगाल की बहुत श्री-वृद्धि हुई। देखा -देखी, डच अंग्रेज और फ्रांसीसियों ने भी भारत से व्यापार करना शुरू किया। इन विदेशी व्यापारियों में भारत के लिए आपस में प्रतिद्वंद्विता चलती थी और इनमें से हर एक का यह इरादा था कि दूसरों को हटाकर अपना अक्षुण्य अधिकार स्थापित करें। व्यापार की रक्षा तथा वृद्धि के लिए इनको यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि अपनी राजनीतिक सत्ता कायम करें। यह संघर्ष बहुत दिनों तक चलता रहा और अंग्रेजों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों पर विजय प्राप्त की और सन् 1763 के बाद से उनका कोई प्रबल प्रतिद्वंदी नहीं रह गया। इस बीच में अंग्रेजों ने कुछ प्रदेश भी हस्तगत कर लिए थे और बंगाल, बिहार उड़ीसा और कर्नाटक में जो नवाब राज्य करते थे वे अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली थे। उन पर यह बात अच्छी तरह जाहिर हो गई थी कि अंग्रेजों ने कुछ प्रदेश भी हस्तगत कर लिए थे और बंगाल, बिहार उड़ीसा और कर्नाटक में जो नवाब राज्य करते थे वे अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली थे। उन पर यह बात अच्छी तरह जाहिर हो गई थी कि अंग्रेजों का विरोध करने से पदच्युत कर दिए जाएंगे।

यह विदेशी व्यापारी भारत से मसाला, मोती, जवाहरात, हाथी दांत की बनी चीजें, ढाके की मलमल और आबेरवां, मुर्शीदाबाद का रेशम, लखनऊ की छींट, अहमदबाद के दुपट्टे, नील आदि पदार्थ ले जाया करते थे और वहां से शीशे का सामान, मखमल साटन और लोहे के औजार भारतवर्ष में बेचने के लिए लाते थे। हमें इस ऐतिहासिक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि भारत में ब्रिटिश सत्ता का आरंभ एक व्यापारिक कंपनी की स्थापना से हुआ। अंग्रेजों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा तथा चेष्टा भी इसी व्यापार की रक्षा और वृद्धि के लिए हुई थी।

आज भारतवर्ष में अग्रेजों की बहुत बड़ी पूँजी लगी हुई है। पिछले पचास- साठ वर्षों में इस पूँजी में बहुत तेजी के साथ वृद्धि हुई है। 634 विदेशी कंपनियां भारत में इस समय कारोबार कर रही हैं। इनकी वसूल हुई पूंजी लगभग साढ़े सात खरब रुपया है और 5194 कंपनियां ऐसी हैं जिनकी रजिस्ट्री भारत में हुई है और जिनकी पूंजी 3 खरब रुपया है। इनमें से अधिकतर अंग्रेजी कंपनियां हैं। इंग्लैंड से जो विदेशों को जाता है उसका दशमांश प्रतिवर्ष भारत में आता है। वस्त्र और लोहे के व्यवसाय ही इंग्लैंड के प्रधान व्यवसाय हैं और ब्रिटिश राजनीति में इनका प्रभाव सबसे अधिक है। भारत पर इंग्लैंड का अधिकार बनाए रखने में इन व्यवसायों का सबसे बड़ा स्वार्थ है; क्योंकि जो माल ये बाहर रवाना करते हैं उसके लगभग पंचमांश की खपत भारतवर्ष में होती है। भारत का जो माल विलायत जाता है। उसकी कीमत भी कुछ कम नहीं है। इंग्लैंड प्रतिवर्ष चाय, जूट, रुई, तिलहन, ऊन और चमड़ा भारत से खरीदता है। यदि केवल चाय का विचार किया जाए तो 36 करोड़ रुपया होगा। इन बातों पर विचार करने से यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों इंग्लैंड का भारत में आर्थिक लाभ बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसका राजनीतिक स्वार्थ भी बढ़ता जाता है।

उन्नीसवीं शताब्दी के पहले इंग्लैंड का भारत पर बहुत कम अधिकार था और पश्चिमी सभ्यता तथा संस्थाओं का प्रभाव यहां नहीं कि बराबर था। सन् 1750 से पूर्व इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति भी नहीं आरंभ हुई थी। उसके पहले भारत वर्ष की तरह इंग्लैंड भी एक कृषि प्रधान देश था। उस समय इंग्लैंड को आज की तरह अपने माल के लिए विदेशों में बाजार की खोज नहीं करनी पड़ती थी। उस समय गमनागमन की सुविधाएं न होने के कारण सिर्फ हल्की-हल्की चीजें ही बाहर भेजी जा सकती थीं। भारतवर्ष से जो व्यापार उस समय विदेशों से होता था, उससे भारत को कोई आर्थिक क्षति भी नहीं थी। सन् 1765 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगल बादशाह शाह आलम से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई, तब से वह इन प्रांतों में जमीन का बंदोबस्त और मालगुजारी वसूल करने लगी। इस प्रकार सबसे पहले अंग्रेजों ने यहां की मालगुजारी की प्रथा में हेर- फेर किया। इसको उस समय पत्र व्यवहार की भाषा फारसी थी। कंपनी के नौकर देशी राजाओं से फारसी में ही पत्र व्यवहार करते थे।

फौजदारी अदालतों में काजी और मौलवी मुसलमानी कानून के अनुसार अपने निर्णय देते थे। दीवानी की अदालतों में धर्म शास्त्र और शहर अनुसार पंडितों और मौलवियों की सलाह से अंग्रेज कलेक्टर मुकदमों का फैसला करते थे। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिक्षा पर कुछ व्यय करने का निश्चय किया, तो उनका पहला निर्णय अरबी, फारसी और संस्कृत शिक्षा के पक्ष में ही हुआ। बनारस में संस्कृत कालेज और कलकत्ते में कलकत्ता मदरसा की स्थापना की गई। पंडितों और मौलवियों को पुरस्कार देकर प्राचीन पुस्तकों के मुद्रित कराने और नवीन पुस्तकों के लिखने का आयोजन किया गया। उस समय ईसाइयों को कंपनी के राज में अपने धर्म के प्रचार करने किया गया। उस समय ईसाइयों को कंपनी के राज में अपने धर्म के प्रचार करने की स्वतंत्रता नहीं प्राप्त थी।

 बिना कंपनी से लाइसेंस प्राप्त किए कोई अंग्रेज न भारतवर्ष में आकर बस सकता था और न जायदाद खरीद सकता था। कंपनी के अफसरों का कहना था कि यदि यहां अंग्रेजों को बसने की आम इजाजत दे दी जाएगी तो उससे विद्रोह की आशंका है; क्योंकि विदेशियों के भारतीय धर्म और रस्म-रिवाज से भली -भांति परिचित न होने के कारण इस बात का बहुत भय है कि वे भारतीयों के भावों का उचित आदर न करेंगे। देशकी पुरानी प्रथा के अनुसार कंपनी अपने राज्य के हिंदू और मुसलमान धर्म स्थानों का प्रबंध और निरीक्षण करती थी। मंदिर, मस्जिद ,इमामबाड़े और खानकाह के आय- व्यय का हिसाब रखना, इमारतों की मरम्मत कराना और पूजा का प्रबंध, यह सब कंपनी के जिम्मे था। अठारहवीं शताब्दी के अंत से इंग्लैंड के पादरियों ने इस व्यवस्था का विरोध करना शुरू किया। उनका कहना था कि ईसाई होने के नाते कंपनी विधर्मियों के धर्म स्थानों का प्रबंध अपने हाथ में नहीं ले सकती।

 वे इस बात की भी कोशिश कर रहे थे कि ईसाई धर्म के प्रचार में कंपनी की ओर से कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। उस समय देशी ईसाइयों की अवस्था बहुत शोचनीय थी। यदि कोई हिंदू या मुसलमान ईसाई हो जाता था तो उसका अपनी जायदाद और बीवी एवं बच्चों पर कोई हक नहीं रह जाता था। मद्रास के अहाते में देशी ईसाइयों को बड़ी-बड़ी नौकरियां नहीं मिल सकती थीं। इनको भी हिंदुओं के धार्मिक कृत्यों के लिए टैक्स देना पड़ता था। जगन्नाथ जी का रथ खींचने के लिए रथ यात्रा के अवसर पर जो लोग बेगार में पकड़े जाते थे उनमें कभी-कभी ईसाई भी होते थे। यदि वे इस बेगार से इनकार करते थे तो उनको बेंत लगाए जाते थे। इंग्लैंड के पादरियों का कहना था कि ईसाइयों को उनके धार्मिक विश्वास के प्रतिकूल किसी काम के करने के लिए विवश नहीं करना चाहिए और यदि उनके साथ कोई रियायत नहीं की जा सकती तो कम से कम उनके साथ वहीं व्यवहार होना चाहिए जो अन्य धर्माबलंबियों के साथ होता है। धीरे-धीरे इस दल का प्रभाव बढ़ने लगा और अंत में ईसाई पादरियों की मांग को बहुत कुछ अंश में पूरा करना पड़ा। उसके फलस्वरूप अपनी जायदाद से हाथ नहीं धोना पड़ेगा।

ईसाइयों को धर्म प्रचार की भी स्वतंत्रता मिल गई। अब राज दरबार की भाषा अंग्रेजी हो गई और अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहन देने का निश्चय हुआ। धर्म-शास्त्र और शरह का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया और एक ‘ला कमीश’ नियुक्त कर एक नया दंड़ विधान और अन्य नए कानून तैयार किए गए। सन् 1853 ई. में धर्म स्थानों का प्रबंध स्थानीय समितियां बनाकर उनके सुपुर्द कर दिया गया। सन् 1854 में अदालतों में जो थोड़े बहुत पंडित और मौलवी बच गए थे वे भी हटा दिए गए। इस प्रकार देश की पुरानी संस्थाएं नष्ट हो गईं और हिंदू और मुसलमानों की यह धारणा होने लगी कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं। इन्हीं परिवर्तनों का और डलहौजी की हड़पने की नीति का यह फल हुआ कि सन् 1857 में एक बड़ी क्रांति हुई जिसे सिपाही विद्रोह कहते हैं।

सन् 1857 के पहले ही यूरोप में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी। इस क्रांति में इंग्लैंड सबका अगुआ था; क्योंकि उसको बहुत-सी ऐसी सुविधाएं थीं जो अन्य देशों को प्राप्त नहीं थी। इंग्लैंड ने ही वाष्प यंत्र का आविष्कार किया। भारत के व्यापार से इंग्लैंड की पूंजी बहुत बढ़ गई थी। उसके पास लोहे और कोयले की इफरात थी। कुशल कारीगरों की भी कमी न थी। इस नानाविध कारणों से इंग्लैंड इस क्रांति में अग्रणी बना। इंग्लैंड के उत्तरी हिस्से में जहां लोहा तथा कोयला निकलता था वहां कल कारखाने स्थापित होने लगे। कारखानों के पास शहर बसने लगे। इंग्लैंड के घरेलू उद्योग-धंधे नष्ट हो गए। मशीनों से बड़े पैमाने पर माल तैयार होने लगा। इस माल की खपत यूरोप के अन्य देशों में होने लगी। देखा-देखी यूरोप के अन्य देशों में भी मशीन के युग का आरंभ हुआ। ज्यों-ज्यों यूरोप के अन्य देशों में नई प्रथा के अनुसार उद्योग व्यवसाय की वृद्धि होने लगी, त्यों-त्यों इंग्लैंड को अपने माल के लिए यूरोप के बाहर बाजार तलाश करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। भारतवर्ष इंग्लैंड के अधीन था, इसलिए राजनीतिक शक्ति के सहारे भारतवर्ष को सुगमता के साथ अंग्रेजी माल का एक अच्छा-खासा बाजार बना दिया गया।

अंग्रेजी शिक्षा के कारण धीरे-धीरे लोगों की अभिरुचि बदल रही थी। यूरोपीय वेशभूषा और यूरोपीय रहन-सहन अंग्रेजी शिक्षित वर्ग को प्रलोभित करने लगा। भारत एक सभ्य देश था, इसलिए यहां अंग्रेजी माल की खपत में वह कठिनाई नहीं प्रतीत हुई जो अफ्रीका के असभ्य या अर्द्धसभ्य प्रदेशों में अनुभूत हुई थी। सबसे पहले इस नवीन नीति का प्रभाव भारत के वस्त्र व्यापार पर पड़ा। मशीन से तैयार किए हुए माल का मुकाबला करना करघों पर तैयार किए हुए माल के लिए असंभव था। धीरे-धीरे भारत की विविध कलाएं और उद्योग नष्ट होने लगे। भारत के भीतरी प्रदेशों में दूर-दूर माल पहुंचाने के लिए जगह-जगह रेल की सड़कें निकाली गईं। भारत के प्रधान बंदरगाह कलकत्ता, बंबई और मद्रास भारत के बड़े-बड़े नगरों से संबद्ध कर दिए गए विदेशी व्यापार की सुविधा की दृष्टि से डलहौजी के समय में पहली रेल की सड़कें बनी थीं। इंल्लैंड को भारत के कच्चे माल की आवश्यकता थी। जो कच्चा माल इन बंदरगाहों को रवाना किया जाता था, उस पर रेल का महसूल रियायती था। आंतरिक व्यापार की वृद्धि की सर्वथा उपेक्षा की जाती थी।

 इस नीति के अनुसार इंग्लैंड को यह अभीष्ट न था कि नए-नए आविष्कारों से लाभ उठाकर भारतवर्ष के उद्योग व्यवसाय का नवीन पद्धति से पुनः संगठन किया जाए। वह भारत को कृषि प्रधान देश ही बनाए रखना चाहता था, जिसमें भारत से उसे हर तरह का कच्चा माल मिले और उसका तैयार किया माल भारत खरीदे। जब कभी भारतीय सरकार ने देशी व्यवसाय को प्रोत्साहन देने का निश्चय किया, तब तब इंग्लैंड की सरकार ने उसके इस निश्चय का विरोध किया और उसको हर प्रकार से निरुत्साहित किया। जब भारत में कपड़े की मिलें खुलने लगीं और भारतीय सरकार को इंग्लैंड से आनेवाले कपड़े पर चुंगी लगाने की आवश्यकता हुई, तब इस चुंगी का लंकाशायर ने घोर विरोध किया और जब उन्होंने यह देखा कि हमारी वह बात मानी न जाएगी तो उन्होंने भारत सरकार को इस बात पर विवश किया कि भारतीय मिल में तैयार हुए कपड़े पर भी चुंगी लगाई जाए, जिसमें देशी मिलों के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना संभव न हो।

पब्लिक वर्क्स विभाग खोलकर बहुत-सी सड़के भी बनाई गईं जिसका फल यह हुआ कि विदेशी माल छोटे-छोटे कस्बों तथा गांवों के बाजारों में भी पहुंचने लगा। रेल और सड़कों के निर्माण से भारत के कच्चे माल के निर्यात में वृद्धि हो गई और चीजों की कीमत में जो अंतर पाया जाता था। वह कम होने लगा। खेती पर भी इसका प्रभाव पड़ा और लोग ज्यादातर ऐसी ही फसल बोने लगे जिनका विदेश में निर्यात था। यूरोपीय व्यापारी हिंदुस्तानी मजदूरों की सहायता से हिंदुस्तान में चाय, कहवा, जूट और नील की काश्त करने लगे।

गंगावतरण

युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, "हे मुनिवर! राजा भगीरथ गंगा को किस प्रकार पृथ्वी पर ले आये? कृपया इस प्रसंग को भी सुनायें।" लोमश ऋषि ने कहा, "धर्मराज! इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक एक बहुत ही प्रतापी राजा हुये। उनके वैदर्भी और शैव्या नामक दो रानियाँ थीं। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर शंकर भगवान की घोर आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि हे राजन्! तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा। इतना कहकर शंकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।


 "समय बीतने पर शैव्या ने असमंज नामक एक अत्यन्त रूपवान पुत्र को जन्म दिया और वैदर्भी के गर्भ से एक तुम्बी उत्पन्न हुई जिसे फोड़ने पर साठ हजार पुत्र निकले। कालचक्र बीतता गया और असमंज का अंशुमान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। असमंज अत्यन्त दुष्ट प्रकृति का था इसलिये राजा सगर ने उसे अपने देश से निष्कासित कर दिया। फिर एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ करने की दीक्षा ली। अश्वमेघ यज्ञ का श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ दिया गया और उसके पीछे-पीछे राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपनी विशाल सेना के साथ चलने लगे। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर देवराज इन्द्र ने अवसर पाकर उस घोड़े को चुरा लिया और उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। उस समय कपिल मुनि ध्यान में लीन थे अतः उन्हें इस बात का पता ही न चला। इधर सगर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े को पृथ्वी के हरेक स्थान पर ढूँढा किन्तु उसका पता न लग सका। वे घोड़े को खोजते हुये पृथ्वी को खोद कर पाताल लोक तक पहुँच गये जहाँ अपने आश्रम में कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे और वहीं पर वह घोड़ा बँधा हुआ था। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को कपिल मुनि ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। अपने निरादर से कुपित होकर कपिल मुनि ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को अपने क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया। "जब सगर को नारद मुनि के द्वारा अपने साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने का समाचार मिला तो वे अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर बोले कि बेटा! तुम्हारे साठ हजार दादाओं को मेरे कारण कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो जाना पड़ा। अब तुम कपिल मुनि के आश्रम में जाकर उनसे क्षमाप्रार्थना करके उस घोड़े को ले आओ। अंशुमान अपने दादाओं के बनाये हुये रास्ते से चलकर कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने अपनी प्रार्थना एवं मृदु व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया। कपिल मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वर माँगने के लिये कहा। अंशुमान बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें। कपिल मुनि ने घोड़ा लौटाते हुये कहा कि वत्स! जब तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है। "अंशुमान ने यज्ञ का अश्व लाकर सगर का अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण करा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये इस प्रकार तपस्या करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके। दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था। भगीरथ के बड़े होने पर दिलीप ने भी अपने पूर्वजों का अनुगमन किया किन्तु गंगा को लाने में उन्हें भी असफलता ही हाथ आई।

"अन्ततः भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं और उनसे वरदान माँगने के लिया कहा। भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा कि माता! मेरे साठ हजार पुरखों के उद्धार हेतु आप पृथ्वी पर अवतरित होने की कृपा करें। इस पर गंगा ने कहा वत्स! मैं तुम्हारी बात मानकर पृथ्वी पर अवश्य आउँगी, किन्तु मेरे वेग को शंकर भगवान के अतिरिक्त और कोई सहन नहीं कर सकता। इसलिये तुम पहले शंकर भगवान को प्रसन्न करो। यह सुन कर भगीरथ ने शंकर भगवान की घोर तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी हिमालय के शिखर पर गंगा के वेग को रोकने के लिये खड़े हो गये। गंगा जी स्वर्ग से सीधे शिव जी की जटाओं पर जा गिरीं। इसके बाद भगीरथ गंगा जी को अपने पीछे-पीछे अपने पूर्वजों के अस्थियों तक ले आये जिससे उनका उद्धार हो गया। भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके गंगा जी सागर में जा गिरीं और अगस्त्य मुनि द्वारा सोखे हुये समुद्र में फिर से जल भर गया।"

आज के समय में नदी की व्यथा



           शांत वातावरण में मदमस्त
                बहती जा रही थी

             हिलोरे लेती सजती रहती...
            कभी उफनती ,तो कभी शांत ...
              बस बहती जा रही थी |


           सौलह श्रृंगार कर,वन सौन्दर्य लिए..
             मै भी कभी नवयुवती थी |
                                                                               तुम्हारा यूँ प्रतिदिन निहारना .
                  मुझे भाने लगा..
                                  
                                                                          किसी देवी भांति,पूजा करना...
                                                                                 मुझे भाने लगा |


                                                                            सच कहूँ तुम्हारे प्रेम वेग में
                                                                              बहती जा रही थी |






पर आज...





तुम्हारा यूँ अचानक बदलना..
मन को कुछ खटका |

ना समझना यह कि तुमने मेरा आँचल मेला कर डाला 
नदी हूँ मै नहीं कोई गन्दा नाला |

कैसे पथिक हो प्यास बुझा के गन्दा कर डाला 
मै नदी हूँ हर गन्दगी धुल जाती, मुझ में |

मेरा वजूद मेरा सौन्दर्य है मुझ से 
पलट कर न देखना, 
कर लो खुद पर इतनी कृपा |


मेरा भाव हो या मेरा सौन्दर्य 
बह जाते है इसमें तुमसे कई |



राजुल शेखावत

भारत में असहिष्णुता ??? - डा. सोफिया रंगवाला

Muslim lady shows mirror to intolerance rants

मैं और मेरा परिवार भारत में फलते-फूलते मुस्ल‍िम प्रोफेशनल हैं। हमें हर किसी ने स्वीकार ही किया है। पिछले एक महिने से भारत में असहिष्णुता का नाम देकर जो नकली वातावरण बनाया जा रहा है, उस पर मैं, एक मुस्ल‍िम महिला, अपने विचार रख रही हूं। वैसे तो इसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन अब लगता है पानी सिर से ऊपर चला गया है इसलिये मुझे अपने विचार रखने ही चाहिये। मैं एक भारतीय महिला हूं और डर्मटोलॉजिस्ट हूं। मैं बेंगलुरु में खुद की लेज़र स्क‍िन क्लीनिक चलाती हूं। मैं क्वेत में पली बढ़ी और 18 साल की उम्र में भारत आ गई। मैं यहां मेडिकल की पढ़ाई करने आयी थी। लग्जरी लाइफ के लिये मेरे सारे दोस्तों ने भारत छोड़ दिया, लेकिन मैंने निर्णय लिया कि मैं भारत में ही रहूंगी। मैंने कभी नहीं सोचा कि एक मुसलमान होने के नाते मुझे किसी भी प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। राष्ट्र के लिये प्रेम और यहां की जमीन से जुड़ाव ने मुझे यहीं जोड़ कर रखा। मैं अपने खुद के देश में 20 वर्षों से रह रही हूं। मैंने मनीपाल कर्नाटक से अपनी पढ़ाई की। बाकी छात्रों की तरह मैं भी अकेली रहती थी। कॉलेज के समय में मेरे सभी प्रोफेसर हिंदू थे और जितने लोगों के संपर्क में मैं थी, उनमें अध‍िकांश हिंदू ही थे। एक भी ऐसा वाक्या नहीं हुआ, जिसमें मुझे धर्म के नाम पर पक्षपात नजर आया हो। मनीपाल में प्रत्येक व्यक्त‍ि बहुत अच्छा था। कभी-कभी मुझे लगता था कि वे मेरे लिये अतिरिक्त प्रयास करते हैं, ताकि मैं अलग फील नहीं करूं। मनीपाल छोड़ने के बाद मैं बेंगलुरु आयी और मेरी शादी हुई। मैं और मेरे पति ने बेंगलुरु में ही रहने का फैसला किया। बेंगलुरु को चुनने का भी एक बड़ा कारण था, जिसे बताते वक्त मैं अपने पति के बारे में भी आपको बताउंगी। मेरे पति भी मुसलमान हैं, उनका पहला नाम इकबाल है। वे एयरोस्पेस इंजीनियर हैं और उन्होंने आईआईटी चेन्नई से एमटेक किया और फिर जर्मनी में पीएचडी। उनके प्रोफेशन की वजह से मैं सबसे सुरक्ष‍ित संस्थाओं - डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन, नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, गैस ट्रिब्यून रिसर्च इस्टेबलिशमेंट, इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, भारत हेवी इलेक्ट्र‍िकल्स लिमिटेड और कई अन्य के साथ जुड़ने का मौका मिला। वे आज भी इनमें से किसी भी संस्था में बिना किसी रुकावट के अंदर जा सकते हैं। उन्हें आज तक कभी भी स्पेशल सिक्योरिटी के नाम पर रोका नहीं गया और न ही उनके साथ किस भी प्रकार का पक्षपात किया गया। और, मोदी सरकार के आने के बाद कोई परिवर्तन नहीं आया है। सच पूछिए तो अब चीजें पहले से ज्यादा अनुसाश‍ित और व्यवस्थ‍ित हो गई हैं, जो कि मैं अपने पति से सुनती हूं। आपको बताना चाहूंगी कि 9/11 हमलों के बाद जर्मनी में पीएचडी करते वक्त जब-जब इकबाल इमेरिका गये। हर बार उनके कपड़े उतार कर चेकिंग की गई। हमें जर्मनी सरकार से एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि इकबाल साफ छवि के हैं उन पर अब कोई शक नहीं है। मुसलमानों पर संदेह! अगर इस पर बात करें तो हम यह समझते हैं कि दुनिया में वर्तमान परिस्थितियों की वजह से यह सब हो रहा है। मेरे पति जिन लोगों के साथ काम करते हैं, वे उनका बहुत सम्मान करते हैं और स्नेह करते हैं। वे सभी हिंदू हैं। पिछले कुछ दिनों से असहिष्णुता का मुद्दा आने के बाद भी कुछ नहीं बदला है। मैंने अपनी क्लीनिक मोदी सरकार के आने के ठीक पहले खोली थी। मैं कानून का पालन करने वाली नागरिक हूं और अपने सभी कर जैसे सर्विस टैक्स, इनकम टैक्स, आदि समय पर भरती हूं। मेरे साथ कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिसकी वजह से मुझे परेशानियां झेलनी पड़ी हों। मैं आराम से अपनी क्लीनिक चला रही हूं और मैं अपने सभी मरीजों को धन्यवाद देना चाहूंगी उनके स्नेह और विश्वास के लिये। उनमें भी लगभग ज्यादातर हिंदू हैं। मेरी क्लीनिक का पूरा स्टाफ हिंदू है और मेरा मानना है कि मैं जिस दिन क्लीनिक में नहीं रहती हूं, वे ज्यादा बेहतर ढंग से क्लीनिक को संभालते हैं। पिछले 20 सालों से मैंने कभी भारत छोड़ने जैसी चीज को महसूस नहीं किया। मेरा पूरा परिवार विदेश में है, मैंने कभी नहीं सोचा और न कभी कहा, कि मैं यहां नहीं रहना चाहती हूं। मेरे पास कुवेत में क्लीनिक खोलने के ऑफर भी आये, लेकिन मुझे भारत ने लितना प्यार दिया है, उसे देखते हुए मैं यहीं रहना चाहती हूं। अगर कुवेत की बात करें तो वहां के लोग हमें कुछ नहीं समझते हैं। मेरा परिवार 40 साल से वहां है, लेकिन उन्हें आज भी प्रवासी माना जाता है। उनके पास कोई अध‍िकार नहीं हैं। उन्हें वहां नियमित रूप से वहां रहने का परमिट रिन्यू कराना पड़ता है। वहां के नियम बदल रहे हैं और प्रवासियों के लिये जीना मुश्क‍िल होता जा रहा हे। सख्त कानून के तहत सौतेला व्यवहार रोज-रोज झेलना पड़ता है। वे लोग एश‍ियाई लोगों को तीसरे दर्जे का समझते हैं। वे अपने अरब के लोगों को ज्यादा महत्व देते हैं। हम वहां कभी खुश नहीं रहे। कम से कम मैं कभी खुश नहीं हुई। भारत एक मात्र देश है, जिसे मैं अपना कह सकती हूं। अगर में अमेरिका में होती तो इंडो-अमेरिकन होती, कनाडा में होती तो इंडो-कैनेडियन, यूके में इंडियन-ब्रिटिश, होती लेकिन भारत में मैं इंडियन हूं। बाकी लोग जो कहना चाहते हैं कहें, यह उनकी च्वाइस है, लेकिन मैं सिर्फ इतना कहूंगी कि मेरा घर भारत ही है। भारत में मुझसे आज तक किसी ने नहीं पूछा- क्या तुम भारतीय हो? किस प्रकार की बातें हमारे सेलेब्रिटीज़ कर रहे हैं? मैं और मेरे पति ने साधारण नागरिक होते हुए आज तक किसी भी समस्या को फेस नहीं किया, तो उनके सामने कौन सी समस्या है? आमिर खान की पत्नी को इतना डर क्यों लग रहा है? वे तो वीआईपी हैं, पॉश इलाकों में रहते हैं उनके बच्चे सबसे अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, उनकी खुद की सिक्योरिटी साथ चलती है, तो उन्हें किस बात का डर? मैं हर रोज अकेले चलती हूं, तब भी मुझे कोई डर कभी नहीं लगा। एक जिम्मेदार नागरिक के नाते आमिर खान और शाहरुख खान से पूछना चाहती हूं कि वे ऐसे गैरजिम्मेदाराना बयान क्यों देते हैं। वे भारत के 13 करोड़ मुसलमानों की छवि को क्यों खराब करते हैं? वे क्यों अपनी निजी राय पब्ल‍िक के सामने रखते हैं? इन सबके बीच जब मेरे हिंदू दोस्त ने मुसलमानों पर अपनी बात लिखी, तो उसे पढ़कर मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे लगता है कि ऐसा करके लोग आम मुसलमान के सामने मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। मुझे डर है कि मेरे खुद के लोग मुझसे नाता न तोड़ दें। मुझे डर है कि मेरे ही देश में अकेला न कर दिया जाये। वो भी उन चंद लोगों की वजह से जो खुद मजे कर रहे हैं। यह एकदम सही समय है मुसलमानों के लिये कि वे देश में खुद की स्वतंत्रता को समझे और इस बात को समझने के प्रयास करें, कि हमने कैसे भारत में अपने जीवन में खुश‍ियों के पलों को जीया है। यह समझना होगा कि किस गर्मजोशी के साथ भारत ने हमें स्वीकार किया। मैं प्रार्थना करूंगी उन हिंदू नागरिकों से कि वे सहिष्णुता बनाये रखेंगे।